कर्म फल सार

कुदरत का कानू और उसूल है कि मनुष्य के दिल मे जिस प्रकार की ख्वाहिस हर समय काम करती है, वह अंदर ही अंदर ताकत पकड़ती रहती है फिर वह मनुष्य धीरे-धीरे वही रूप बनता चला जाता है संसारी जीव क्यो दुःखी है? इसलिए कि उसने अपने अन्दर मायावी ख्वाहिशो के द्वारा दुःखो का बे-अन्दाजा ढेर अपने अन्दर जमा कर रखा है

 

      ऐसा भी नही है कि एक दिन की किसी ख्वाहिश से या एक दिन के मलिन और बुरे संस्कार से जीव दुःखी हुआ है या मौजूदा दुःख की अवस्था मे पहुँचा है, बल्कि यह जीव की काफी वक्त और अरसा से जो मलिन संस्कार अन्दर मे जमा होते रहे है वही आज जीव को दु्खी बनाये हुए है
      कोई न कोई ख्वाहिश जैसे धन-पदार्थ प्राप्त करने की, संसार के भोगो को पाने की, शरीर और इन्द्रियो के सुखो की प्राप्ति या इसी प्रकार की और ख्वाहिशे मनुष्य काफी वक्त से अपने अन्दर पैदा करता आ रहा है यदि इनकी प्राप्ति भी हो जाए तो भी इनका फल दुःख है, तथा अप्राप्ति मे भी दुख मिलता है जिस का नतिजा से वह आज दुखी और अशान्त है
      कुदरत की तरफ से कभी किसी के साथ बे- इन्साफी या रियायत नही होती, जीव की हालत जो कुछ आज है वह उसकी अपनी पैदा की हुई है
      अगर कोई यह कहे कि मैने तो सुख की ख्वाहिश की थी, मगर बदले मे मुझे दुख और अशान्ति क्यो मिली? तो उसका उत्तर यह है कि जिन पदार्थो की ख्वाहिश की गई थी उनका जो प्रभाव है उससे तो कोई नही छूट सकता जो कुछ तुम्हे मिला है तुम्हारी अपनी ख्वाहिश और अपनी इच्छाओ के मुताबिक मिला है इन मायावी खाहिसो का प्रभाव ही दुख, बन्धन और नीच योनिया है कुदरत का कानुन ही यही है और इससे ज्यादा या कम होना मुमकिन नही
।। शेअर।।
अज मुकाफते अमल गाफिल मशौ।
गन्दुम अज गन्दुम बिरायद जौ जि जौ
      अर्थात् ” ऐ इन्सान! कर्मो के फल से कभी गाफिल मत हो, क्योकि गन्दुम बोने से गन्दुम पैदा हाेता है और जौ बोने से जौ ही पैदा होते है।”
     जैसी करनी, वैसी भरनी। जैसा ख्याल वैसा हाल, जो करोगे सो पाओगे। कीकर बोकर कभी आम नही खाया जा सकता गुरूवाणी मे भी लिखा है –
जो जीइ होइसु ऊगवै मुह का कहिआ वाउ।
बीजै बिखु मंगे अंमृतु वेखहु एहु निआऊ।।
      अर्थात् कथनी से कुछ नही होता जो कर्म किया जाता है उसी का फल मिलता है विष का बीज बो कर यदि कोई अमृत की चाहना करे तो वह कैसे मिले? एक मामूली सा बीज भी वक्त पर जरूरी फल लाता है, क्योंकि उनमे फल देने की ताकत गुप्त रूप से मौजूद है बिना बीज बोए कोई भी फल हासिल नही होता और न ही कभी ऐसा होता है बीज बोए कोई और फल मिले कोई ओर।
     यह जो दुख, अशान्ति, कल्पना और नीच योनियो के बन्धन तुम्हारे पल्ले पड़ गये है यह सब तुम्हारे अपने ही मांगे हुए है। जीव खुद ही इन चीजो को इकट्ठठा कर परेशान होता व रोता है
      इसी दुख, अशान्ति, कल्पना व नीच योनियो के बन्धन से मुक्त होने के लिए ही जीव ने स्वयं मानुष-देही की प्राप्ति की इच्छा की थी तथा यह वचन किया था कि मानव देही की प्राप्ति करके नाम- स्मरण तथा भक्ति की कमाई  करके नीच योनियो के बन्धन से छूट जाऊगा, चाहे इसे अब यह वायदा याद हो या न हो इस संसार मे आकर माया के छलावे मे यह सब भूल जाता है परन्त  इसी वचन को याद दिलाने के लिए ही समय-समय पर सन्त-सत्पुरूषो का अवतरण होता है
      सन्त सतगुरू ही इस भेद को जानते है कि यह जीव क्यो दुखी है और वे अपने संत्सग द्वारा उसे दुःखो से छुटकारा हासिल करने का उपाय बतलाते है
      विचार इस बात का करना है कि जिन पदार्थो की चाह मे मुबतिला होकर जीव ने दुःखो की पूँजी इकट्ठा की, वे पदार्थ तो एक न एक दिन हाथो से निकल ही जायेगे परन्तु उनके प्रभाव और संस्कार तो जीव के साथ मौजूद  रहेगे और ये जन्मो तक साथ नही छोड़ते
      पहले भी अनेको जन्मो मे जीव ने यही धोखा खाया है कि मायावी पदार्थो की खाहिशों से अपने अन्दर मे मलीन संस्कार जमा कर लिये है और नतीजा के तौर पर आज उसकी दुखभरी अवस्था है।
      भला यह कहां की अकलमंदी है कि जीव खुद अपने लिए दुख का सामान खरीदता फिरे तथा काल माया के बन्धन मे फँसने का इन्तजाम करे और खुद-बखुद ही काल और माया की गुलामी को कबुल करता फिरे और अपने दुश्मनों के साथ मेंल-मिलाप और गठ-जोड़ बनाए रखे। अब इस गफलत की हालत से जब कोई जीव को जगाता है तो उसे बुरा महसूस होता है, क्योकि सुरति अब इन्ही चीजो मे अटक चुकी है और फँसी हुई है अब इन्हें छोड़ना बुरा लगता है और अब वही काल माया की गुलामी ही जीव को पंसद है अर्थात् रास आ चुकी है परन्तु सन्त सतगुरू नही चाहते की यह जीव माया का गुलाम बना रहे और वे इस गुलामी से छुड़ाना और आजाद कराना चाहते है।
      भूला जीव समझता है कि मायावी पदार्थों को हासिल करके मै उनका मालिक बन गया हूँ किन्तु यह सख्त गलत फहमी है। उल्टा जीव को खुद उन मायावी पदार्थों का गुलाम बन गया है और उनके कब्जे मे आ चुका है फिर भी गलती से अपने आप को माया का मालिक समझता है यही धोखा, गलती और गुमराही है।
      जब कोई शख्स दुश्मन के कब्जे मे पड़ जाये तो फिर भला दुश्मन अपने कब्जे में आये हुए दुश्मन को क्यो सुखी रखने लगा, यह सोचने की बात है
      अब जीव की यह हालत है कि इस गुलामी और बन्धन से छुटकारा या मोक्ष हासिल करने का तो कभी ख्याल ही नही पैदा करता, उल्टे मायावी गुलामी का जुआ अपने कन्धो पर मजबूती से जमाए रखने की ख्वाहिश अन्दर मे मौजूद रहती है।
      अब इसे चाहिए काल और माया की गुलामी से आजाद होने के लिए सन्त सतगुरू की आज्ञानुसार सेवा करे। अपने आप को यह जीव काल और माया की गुलामी से आजाद होने के लिए सन्त सतगुरू की आज्ञानुसार सेवा करे अपने आप को यह जीव काल और माया की गुलामी से आजाद होने से रहा अर्थात् नही हो सकता यह तो केवल सन्त सतगुरू ही है जो जीव को इन जबरदस्त बन्धनो से छुड़ाते है
      सन्त सतगुरू जीव के ख्यालो का रूख बदलते है क्योकि अब यह जीव काल और माया के मुकाबले मे आया है और इन मुकाबले के लिए उसे ताकत इकट्ठा करने की जरूरत है इसलिए अब इसे अपने ख्यालो का रूख पलटना होगा
      कर्म तो वही रहेगे, केवल भावना का रूख बदल लेने की जरूरत है गाड़ी और गाड़ी का इंजन ज्यो का त्‍यों रहने दिया जाए तो, केवल लाइनों का कांटा बदल दिया जाए तो गाड़ी दूसरी दिशा की और जायेगी अर्थात् काँटा बदल देने से गाड़ी की मंजिल बदल जाती है इसी प्रकार जीव के ख्याल या भावना का रूख बदल जाने से जिन्दगी का मकसद और ध्येय भी बदल जायेगा
      तुम सत चित्त आनन्द स्वरूप, परम शक्तिमान और निर्मल चैतन्य आत्मा या रूख हो। तुम शरीर या जिस्म नही हो शरीर तो केवल तुम्हारे बैठने के लिए एक आरजी मकान या सफर करने के लिए गाड़ी के एक छकड़े की सूरत मे तुम्हे मिला है।
      इस छकड़े या गाड़ी का रूख पहले दुश्मनो की तरफ है अर्थात् यह काल और माया की तरफ जा रही है यह गाड़ी जो पहले चौरासी लाख योनियों और नरको की दौड़ती जा रही है, अब इसका रूख बदल कर सन्त सतगुरू की तरफ कर दो
      सतगुरू की भक्ति उनकी आजा पालन और उनकी सेवा यह सब कुल मालिक से मिलने वाले साधन है और मायावी पदार्थो का प्रेम काल और माया से मिलाता है अब यह जीव की मर्जी है कि दोनो मे से जिस की मुहब्बत और प्रेम को चुन ले
     जानबूझ कर भी अगर कोई गलती या गुमराही की तरफ जाये तो उसे क्या कहा जाए सन्त सतगुरू तो असलियत को जतला देते है असलियत को समझकर भी अगर कोई न समझे तो उसकी मिसाल ऐसी है कि जैसे कोई इंसान हाथो मे दीपक लेकर कुएँ मे जा गिरे
।। सोरठा।।
 मन जानत सब बात, जानत ही औगुण करे।
 काहे को कुसलात, हाथ दीप कुएँ  परे।।
      अर्थ – ” जीव का मन भली बुरी सब बात जानता है किन्तु जान बूझकर भी औगुण या बुराई की तरफ लपकता है भला जिस मनुष्य ने हाथो मे दीपक लिया हुआ हो वह भी यदि कुएँ मे जा गिरे तो उसकी कुशल किस तरह से हो सकती है।”
      अब करना यह है कि जिस प्रकार धीरे-धीरे माया और मलिनता की ताकत मनमति द्वारा अन्दर जमा की गई है, उसी प्रकार धीरे-धीरे सतगुरू की आज्ञा से भक्ति, प्रेम, सेवा, ध्यान और उपासना इत्यादि के द्वारा सतगुरू से मिलकर रूहानी ताकत हासिल करे
      सन्त सतगुरू शरण मे आये हुए जीव के अन्दर भक्ति और प्रेम का बीज डाल देते है इसका आज्ञानुसार सेवन करो और इसकी ताकत को बढ़ाओ
      ज्यो-ज्यों संत्सग, सेवा और आज्ञापालन इत्यादि के साधनों मे मन लगता है, त्यों-त्यों की उसके अन्दर मे भक्ति का बीज फलने लगता है तथा रूहानी ताकत पैदा होती जाती है
      यह भी याद रहे कि भक्ति के मार्ग मे रूकावटे भी बहुत आया करती है और इन रूकावटो के कारण यदि कही पाँव फिसल भी जाए तो भी रूकना नही चाहिए । गिरते-पड़ते हुए चलते रहने से यह जीव एक न एक दिन जरूर अपनी मंजिल पर जा ही पहुँचेगा
      अतएव सतगुरू की सेवा, सतगुरू भक्ति, प्रेम, आज्ञापालन और दृढ़विश्वास के द्वारा अपने अन्दर मे सच्ची रूहानी ताकत को पैदा करके मानुष-जीवन का सच्चा लाभ प्राप्त करना है।

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