यह जितना भी दृश्यमान संसार दृष्टिगत होता है सब स्वार्थ का ही प्रत्यक्ष आकार है। जितने तक जिसका स्वार्थ सिद्ध होता है तब तक वह उनका प्रिय बना रहता है। स्वार्थ पूर्ण हो जाने पर कहते है कि यह बला जल्दी टल जाये तो अच्छा होगा। इस संसार मे केवल सन्त-सतगुरू ही निःस्वार्थ होते है। उन्हे किसी जीव से निजी प्रयोजन नही होता। वे जीव के कल्याणार्थ उसे सन्मार्ग दर्शाते है।
।। दोहा ।।
स्वार्थ सब संसार है, परमारथ गुरू एक ।
मन चित्त मे दृढ़ किजिए, सतगुरू की ही टेक ।।
जैसे कि श्री रामायण मे भी कहा गया है –
।। चौपाई ।।
हेतु रहित जग जुग उपकारी ।
तुम तुम्हार सेवक असुरारी ।।
स्वारथ मीत सकल जग माही ।
सपनेहू प्रभु परमारथ नाही ।।
जिस समय भगवान श्री रामचन्द्र चौदह वर्ष वनवास में रहकर अयोध्या मे आये थे तब एक दिन उन्होने अपने नगर के समस्त पंडितो व पुरावासियो तथा अपने गुरूजनो के समक्ष मनुष्य जन्म के उद्देश्य का प्रतिपादन किया जिसे सुनकर सब जन कृतकृत्य हो गये और सब भगवान के चरणो मे विनय करने लगे – ऐ भगवन! जगत् मे दो ही उपकार करने हेतु अवतरित होते है एक आप और दूसरे आपके भक्तजन (सन्तजन) अन्यथा यह समस्त संसार स्वार्थ से ही भरा हुआ है, स्वप्न मे भी परमार्थ यहां दृष्टिगत नही होता।
स्वार्थपरता का प्रत्यक्ष प्रमाण निम्न दृष्टान्त में देखिये –
काठियावाड़ (गुजरात) में एक अति धनी-मानी सेठ रहता था। बम्बई, मद्रास, कलकत्ता व देहली आदि भारत के कई बड़े-बड़े नगरो के अतिरिक्त उसका विदेशो में भी व्यापारिक कार्य व्यवहार चलता था। कई नगरो मे इस सेठ की कोठियाँ बनी हुई थी। सेठ जी ने मुनीम व नौकर-चाकर रखे हुए थे तथा स्वयं भी प्रत्येक नगर में कार्य-निरीक्षण के लिए चक्कर लगा आता था। उसके दो पुत्र थे जो कि विद्याध्ययन कर युवावस्था मे पहुँच चुके थे इसलिए उन्होने सेठ जी के कार्य-व्यवहार मे हाथ बँटाना शुरू कर दिया था। इस समय सेठ जी की आयु लगभग 60 वर्ष की हो चुकी थी।
अकस्मात् सेठ जी अत्यधिक बीमार हो गये। चिकित्सा आदि करने पर भी वह स्वस्थ न हो सके और अपने जीवन से निराश हो गए। एक दिन अपने दोनो लड़को को अपने निकट बुलाया और कहने लगे – प्यारे पुत्रो! मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि मेरा अन्तिम समय निकट आ चुका है, न मालूम मूझे किस समय मृत्यु आकर मुझ पर धावा बोल देवे। इसलिए मै तुम दोनो से एक बात कहता हुँ। जब तुम देखो कि मै मरणोसन्न हुँ तो उस समय वह सोने की साँकली जो मेरे गले की है तथा जिसकी कीमत लगभग छः-सात हजार रूपये की है मेरे हाथ से किसी ब्राह्मण को दान करा देना। लड़को ने उत्तर दिया – पिता जी! आप केवल साँकली ही दान देने को कहते है। आप घबराइये नही! हम आपकी मृत्यु पर लाख-दो लाख रूपये दान देगे। इस पर सेठ जी ने कहा कि यह तो केवल तुम्हारी कहने की ही बाते है। न तो तुम मेरे पश्चात इतना खर्च करोगे और न ही इतना अधिक खर्च करने की आवयश्कता है। यह साँकली जो शुरू से ही मेरे पास रही है, इसी को ही दान मे दे देना। लड़को ने पिता की बात की स्वीकृति दे दी।
विशेष – यह बात पाठकगण स्मरण रखे कि गुजराती भाषा मे सांकली सोने की जंजीर को भी कहते है और साँकली गुड़ कि मिठाई (गजक) को भी कहते है। जिस पर तिल लगे होते है। इस प्रकार साँकली के दो अर्थ निकलते है। यहाँ पर ‘साँकली’ शब्द सोने की जंजीर है।
कुछ दिन बीत जाने पर जब डॉक्टरो ने सेठ जी की दशा अन्तोषजनक बताई तो लड़के यह सुनकर बहुत प्रसन्न हुए क्योकि वे हदय से यही चाहते थे। अब प्रत्यक्ष मे तो सेठ जी का अन्तिम समय निकट आ चुका था परन्तु ईश्वर के खेल तो निराले होते है।
बूढे सेठ ने हाथ के इशारे से लड़को को साँकली दान करने कराने के लिए कहा – चूंकि सेठ जी की वाणी (जुबान) बंद हो चुकी थी। लड़के समझ भी रहे थे कि हमारे पिता जी क्या कह रहे है परन्तु वे जानबूझ कर टालमटोल कर रहे थे क्योकि उनकी दृष्टि मे बाप से बढकर धन अधिक महत्तव रखता था। अज्ञानता के वश मे होकर जीव अपने सम्बन्धियो से कितनी ऊँची आशाये रखता है परन्तु वह नही जानता कि सांसारिक सम्बन्धी तो केवल स्वार्थ के ही मीत होते है।
जैसे कि श्री दादूदयाल जी के वचन है –
बाप कहे यह पूत-सपूत और मात उठात के गोद बलैया ।
नारी कहे घर के घर थम्बन, बहन कहे मेरा लायक भैया ।।
अडोस परोस भी अर्ज करे, चाचा कहे मेरा लायक भतैया ।
‘दादू’ दो हाथ उठाय कहे, जब जेब मे होवे सफेद रूपया ।।
जब बूढे ने समझा ये मेरा इशारा नही समझ रहे तो पुनः गले को हाथ लगाकर इंगित (इशारा) करना चाहा। तब बड़े लड़के ने समझा, मालूम होता है कि पिता जी को इस समय प्यास लग रही है। तब उसने पानी का गिलास आगे कर दिया। किन्तु सेठ ने हाथ हिलाकर पानी से इन्कार कर दिया। सेठ ने पुनः इशारो से लड़को को साँकली के विषय मे समझाना चाहा परन्तु सब व्यर्थ। तब सेठ ने बड़े परिश्रम से जोर लगाकर अटक-अटक कर एक-एक शब्द कहा ‘साँ… क…ली।’ बेटो ने जानबूझ कर कि कही सोने की साँकली जो इतनी मूल्यवान् है हमारे हाथो से न चली जाए, यह सोचकर बड़े भाई ने छोटे भाई से कहा – भाई! पिता जी ‘साँकली’ माँगते है। इसीलिए बाजार मे जाकर एक पैसे की साँकली ले आओ।
कितना स्वार्थमय संसार है! जिसने पुत्रो के सुख के लिए इतना अथक परिश्रम किया, पुत्रो को सुयोग्य बनाया, वे ही मृत्यु समय कैसा निष्ठुर व्यवहार करते है।
किसी कवि ने सत्य ही कहा है –
छोड़ छोड़क दी न कर चिंता, ऐह पुत्तर आपे खट लैसन ।
वंज पराय खुआँ उते, तैनू सखणाँ पाणी देसन ।।
वरे दिहाडे पिछो तेरा, एक शिराध करेसन ।
आख ‘ग्वाला’ ओ आप चा खासन तेरे मुँह विच मिट्टी पेसन ।।
सो, हमारा प्रसंग यह चल रहा था कि पिता जी के ‘साँकली’ शब्द कहने पर बाजार से तिलो वाली सांकली आ गई। पुत्र ने सेठ के मुँह मे उस साँकली का टुकड़ा तोड़कर ठूँसने लगे। सेठ जी ने खाने से इन्कार कर दिया। परन्तु लड़के कब मानने वाले थे। वे तो चाहते थे कि शीघ्र यह मरे और हम स्वतंत्र होकर जीवन व्यतीत करे। ऊपर से कहने लगे कि कही ऐसा न हो कि हमारे पिता जी अपने दिल मे अन्तिम समय साँकली खाने की इच्छा साथ ले जाये। यह कहकर साँकली का एक टुकड़ा तोड़कर बरबस पिता के मुँह मे ठूँस दिया। सेठ को यह देख अपने अयोग्य पुत्रो से घृणा हो गई। साँकली खाने की तो उसे इच्छा ही न थी। अतः उसने साँकली को थूक दिया।
घर के लोग तो इसी प्रतीक्षा मे थे कि अब बूढे की जान निकली सो निकली परन्तु सेठ अपने पुत्रो के स्वार्थमय व्यवहार से अपने मन मे अति दुःखी व परेशान था। उसके हदय मे अब तीव्र वैराग्य उठा और भगवान वे चरणो मे उसका प्रेम फूट पड़ा। वह व्याकुल होकर मन ही मन परम पिता परमात्मा के चरणो मे प्रार्थना करने लगा – हे प्रभु! हे दयामय!! आप इस समय मुझे मृत्यु के मुख मे जाने से बचा लिजिये, आपकी अति कृपा होगी। भगवन! मै यदि इस समय बच गया तो अपना सारा धन परमार्थ के कार्य मे खर्च कर दूँगा।
ईश्वर दयालु होते है। हदय से की गई सेठ की प्रार्थना को भगवान ने स्वीकार कर लिया। अस्तु सेठ जी उसी दिन से कुछ-कुछ स्वस्थ होने लगे। अब उनकी दशा दिन-प्रतिदिन सूधरती गई। कुछ समय के पश्चात सेठ जी पूर्णरूपेण स्वस्थ हो गये तथा अपने व्यापारिक कार्यो को उन्होने अपने हाथ मे ले लिया।
उन अयोग्य पुत्रो के कपट व्यवहार को देख, सेठ जी को उनसे अति घृणा हो गई थी परन्तु प्रत्यक्ष मे सेठ ने अपने पुत्रो से कुछ भी न कहा। मगर लड़के अब लज्जावश पिता के सामने आने से सकुचाते थे। सेठ जी ने भीतर ही भीतर सब व्यापार समेटना प्रारम्भ कर दिया। जिस-जिस देश मे उसका व्यापार था वहां के मैनेजरो (प्रबन्धको) को फोन द्वारा समाचार भिजवा दिया कि तुम सब सामान व मकान बेचकर धनराशि लेकर यहां शीघ्र पहुँच जाओ। सेठ जी का समाचार पाते ही उन्होने ऐसा ही किया और सब कुछ बेचकर सेठ जी को सूचना भेज दी कि हम अमुक दिन समस्त धन-राशि लेकर आपके पास पहुँच रहे है।
उधर तो सेठ जी ने सब कार्य-व्यवहार बंद करा दिया और इधर अपने दोनो लड़को से कहा कि – बेटो! नौकर-चाकर व प्रबन्धक काम उचित ढ़ग से नही करते अतः तुम मे से एक मद्रास व दूसरा कलकत्ता चले जाओ और वहां का कार्य व्यवहार स्वयं सँभालो। लड़के तो पिता की आज्ञा पाकर उधर गये। इधर सेठ जी काठियावाड़ का मकान व समान बेचकर तथा सब नौकरो को छुटटी देकर अखिल धन-राशि लेकर काशी मे जा पहुँचे।
दोनो लड़के जब मद्रास व कलकत्ता मे पहुँचे तो क्या देखते है कि वहां पर अपना न तो कोई मकान है और न ही मुनीम-नौकर-चाकर आदि कुछ भी नही। बड़े आश्चर्य चकित हुए सोचने लगे – यह क्या बात हुई। वापस घर आये तो यहां भी वही हाल था। निराश होकर कुछ दिन इधर-उधर भटकते रहे। लोगो से पूछा कि पिता जी कहाँ गए ? परन्तु कुछ न पता चला। सेठ जी ने काशी मे आकर सदाव्रत चला दिया। एक स्थान पर साधुओ के लिए भोजनालय का प्रबन्ध किया, दूसरी जगह एक पाठशाला खोल दी तथा एक धर्मशाला भी निर्मित करवाई। भाव यह कि वे अपनी सब धन सम्पत्ति शुभ कार्यो मे लगाने लगे।
अत्यधिक खोज करने पर लड़को को ज्ञात हो गया कि हमारे पिता जी काशी की और चले गये है। तदनुसार ये दोनो भी खोजते-खोजते काशी के उस मुहल्ले मे जा पहुँचे जहाँ की सेठ जी ने मकान लिया हआ था। जब ये दोनो मकान के भीतर प्रवेश करने लगे तो द्वारपाल ने पूछा कि कहाँ जा रहे हो? इस पर लड़को ने कहा – हम तो दोनो सेठ जी के लड़के है। द्वारपाल ने कहा – सेठ जी की आज्ञा लिये बिना मै तुम्हे अन्दर न जाने दूँगा। यह सुनकर वे दोनो द्वार पर ही रूक गये। द्वार-रक्षक ने भीतर जाकर सूचना दी। लड़को का आगमन सुनकर सेठ जी ने अति दुखी होकर कहा कि वे दुराचारी यहाँ भी आ पहुँचे है। तुम उन दोनो को धक्के देकर यहाँ से निकाल दो। मै इनकी सूरत तक भी नही देखना चाहता। सेठ जी से ऐसी आज्ञा पाकर द्वारपाल ने दोनो को अपमानित करके बाहर निकाल दिया। तब लड़को ने काशी के बडे-बड़े लोगो से मिलकर अपनी शिफारिश करवानी चाही। कुछ सज्जन आकर सेठ जी को समझाने लगे। परन्तु जब सेठ ने उन्हे अपने पुत्रो के नीच व्यवहार करने का वृत्तान्त सुनाया तब उन लोगों ने भी भाइयो को लज्जित किया और उनसे आँखे फेर ली। दोनो भाई करूण-क्रन्दन करते हुए सबके समक्ष अपने अपराध के लिए क्षमा याचना करने लगे। बहुत अनुपात करने पर पिता ने अपने पुत्रो को क्षमा तो कर दिया और जीवन-निर्वाह के लिए एवं व्यापार चलाने के लिए धनराशि भी दे दी और हस्ताक्षर भी इस शर्त पर करवाये कि शेष आयु मे भगवद्-भजन, साधु-महात्माओ की सेवा व संत्सग तथा परमार्थ के कार्यो मे धन लगाओगे। लड़को ने पिता की आज्ञा शिरोधार्य की और वहां से चलकर वे काठियावाड़ मे आ गये। पिता के कथनानुसार परमार्थ के कार्यो मे उनकी प्रवृत्ति हो गई। जिससे दोनो भाइयों का जीवन सुधर गया।
इस प्रसंग को पढने से यह विदित होता है कि किस प्रकार धन के पीछे उसके लड़के अपने पिता सेठ के साथ पहले कितना क्रूर व्यवहार करते रहे। इसी कारण सन्त-महापुरूष जीवमात्र को संसार की स्वार्थपरता से बचाना चाहते है।
जैसे कि सन्त सहजोबाई जी ने कथन किया है –
ऐ मानव! इस संसार मे समस्त सम्बन्धी केवल अपने स्वार्थ के ही सगे होते है। इतने पर भी अज्ञानी जीव उन्हे अपना-अपना कहते है।
वे भाग्यशाली जीव है जिन्हें संसार के स्वार्थ की वास्तविकता का ज्ञान हो गया है। सन्त-सत्पुरूष जीव को इस सांसारिक स्वार्थ के अन्धकार से निकाल कर अपनी नि:स्वार्थ विमल प्रेम-भक्ति प्रदान करते है और उसे सच्चे धन से मालामाल कर देते है।