किसी स्थान पर महात्माओ की मण्डली बैठी थी। उनमे प्रभु-महिमा व सत्संग की चर्चा चल रही थी। एक महात्मा ने प्रश्न किया कि सृष्टि मे सब से बड़ा कौन है ?
इस विषय पर जो उन सब मे प्रश्न उत्तर हुए, उनको यहाँ पर पंजाबी कविता के रूप मे प्रस्तुत किया जा रहा है –
।। कविता ।।
पहला महात्मा – कोई कहे पृथ्वी सब तो है बडी,
जिस उते मखलूक समाई होई ए ।
दूसरा – पृथ्वी नही वडी, वड़ा शेष है जी,
जिस पृथ्वी सिर ते उठाई होई ए ।।
तीसरा – शेष नही वड़ा, वडे महेश है जी,
जिन्हा रूण्ड माला गले पाई होई ए।
चौथा – महेश नही वड़ा, वड़ा कैलाश है जी,
जित्थे शिवां ने धूनि रमाई होई ए ।।
पांचवा – कैलाश नही वड़ा, वडा है रावण,
– जित्थे रावण ने ताकत अजमाई होई ए ।
छटा – रावण नही वडा, वडा है बाली,
– जिस रावण नूँ कच्छे दबाई होई ए ।।
सातनां – बाली नही वड़ा, वडा राम है जी,
– जिस बाली नूँ मार मुकाई होई ए ।
आठवा – राम नही वडा, वडे ‘भक्त’ है जी,
– जिन्हा राम तो कार कराई होई ए ।।
अर्थ – पहले महात्मा ने कहा कि पृथ्वी सबसे विशाल है क्योकि इसने जड़ अथवा चेतन समस्त सृष्टि को अपने ऊपर धारण कर रखा है। तब दूसरा महात्मा कहने लगा कि धरती से शेषनाग जी अधिक बड़े है व शक्तिशाली है जिन्होंने कि समस्त धरा को अपने सिर पर धारण किया हुआ है। इसके पश्चात तीसरे महात्मा जी ने कहा कि शेषनाग जी से शिवजी महाराज अधिक बडे है जो शेषनाग की भाँति कई साँपो को अपने गले की माला बना कर पहने हुए है। पुनः चौथे महात्मा बोले की मेरे विचार से तो शिवजी से अधिक बड़ा कैलाश पर्वत है जहाँ पर की शिवजी स्वय निवास करते है। तत्पश्चात पाँचवा महात्मा कहने लगा कि उसी कैलाश पर्वत पर ही रावण ने अपने बाहुबल का परीक्षण किया था। अतएव इस विचार से तो रावण को ही शक्तिशाली एवं बड़ा मानना चाहिए। फिर छटे महात्मा ने कहा – इतिहास इस बात का साक्षी है कि बाली ने एक बार रावण को अपनी बगल में छः महीने तक इस प्रकार दबाये रखा जैसे की मानो वह अबोध बालक हो। इस घटना को देखे तो बाली ही सबसे बड़ा प्रतीत होता है। इसके बाद सातवां महात्मा कहने लगा की उसी पराक्रमी बाली को भगवान श्री रामचन्द्र जी ने एक ही बाण से मार गिराया था। तब तो भगवान श्री रामचन्द्र जी ही सबसे बड़े सिद्ध हुए, वे ही श्रेष्ठ कहलाने के अधिकारी है।
इतना सुनना ही था कि समूची महात्मा मंडली ने ताली पीटना आरम्भ कर दी व सबके के सब एक स्वर मे ‘सत्य है- सत्य है’ कहने लगे। इस पर आठवां महात्मा बोल उठा कि “मेरी भी बात तो सुनो भगवान के अनन्य भक्त जो कि भगवान से भी काम करवा लेते है तथा भगवान भी सहर्ष उनका कार्य कर देते है। इस विचार को अपने सम्मुख रखकर तनिक बताओ तो सही कि फिर भगवान बडे हुए या कि उनके भक्त ?”
यह सुनकर एक महात्मा ने उनसे प्रश्न किया कि आपके कोई ऐसा ठोस प्रमाण हो तो हमे बताओ जिससे हमको भी यह ज्ञात हो जाए कि भगवान ने भक्तो की सराहना की है तथा भगवान ने अपनी तुलना मे भक्तो को श्रेष्ठ बताया है ?
इस प्रश्न के करने पर आठवें महात्मा ने उत्तर दिया –
इस बात के लिए तो एक नही अनेको प्रमाण है जो कि मै आपको बता सकता हूँ।
आपने यह तो सुना ही होगा कि भगवान श्री रामचन्द्र जी जब शबरी के आश्रम पर गए थे उस समय शबरी ने प्रेम से संचित किए हुए अपने उच्छिष्ट बेर भगवान को भोग लगाने के लिए दिए थे। तब भगवान श्री रामचन्द्र जी ने बडे प्यार से उन बेरो की सराहना करते हुए भोग लगाया तथा लक्ष्मण जी को भी खाने के लिए बेर दिये परन्तु सुमित्रानन्दन ने उन बेरो को न खाकर तथा भगवान की दृष्टि से बचाते हुए पीछे की ओर फेंक दिए। उन प्रेम-सने बेरो का यह अपमान देखकर भगवान को भीतर से शोक तो हुआ फिर भी प्रत्यक्ष मे उन्होने लक्ष्मण से कुछ न कहा।
आगे चलकर जब लंका मे युद्ध के दौरान मेघनाद द्वारा बरछी लगने पर लक्ष्मण जी बेहोश हो गये थे तब वही बेर संजीवनी बन कर उनके सामने आए और उनको घोट कर वह रस लक्ष्मण के मुँह मे डाला गया तथा उसकी मरहम बना घावो पर लगाई गई। सच है भगवान को स्वयं का अपमान दुःख नही पहुँचाता परन्तु जब कोई उनके भक्त का अपमान तिरस्कार करता है तो उस समय वह अपने भक्त का अपमान सहन नही कर सकते क्योकि वह अपने अनन्य प्रेमियो को अपने प्राणो से भी बढकर प्रिय समझते है।