सबको ज्ञात है कि रावण अपने समय मे एक महाप्रतापी राजा हो चुका है। उसे हर प्रकार की शक्ति प्राप्त थी। उदाहरणतया विद्या, धन, सेवा-पराक्रम, असंख्य परिवार, इसके अतिरिक्त दैवी शक्तियो का भी वह धनी था। हर प्रकार के भोगेश्वर्य की सामग्रिया उसके यहां प्रचुर मात्रा मे थी। अपने समय मे केवल वह ही चारो वेदो का अद्वितीय ज्ञाता और प्रकाण्ड पण्डित था परन्तु उसमे एक दुर्गुण यही था कि वह इतना विद्या तथा धन-धान्य से सम्पन्न होता हुआ भी काम, क्रोध, लोभ,मोह, अंहकार आदि को वशीभूत न कर सका।
रावण के राज्य मे ऋषि-मुनि, साधु-महात्मा और तपस्वी लोग भी रहा करते थे। जब उसको वहाँ रहते-रहते चिरकाल हो गया तो एक दिन रावण के दिल मे यह विचार उत्पन्न हुआ कि ये लोग मेरे राज्य मे सुख-पूर्वक जीवन निर्वाह तो कर रहे है परन्तु कोई काम-धन्धा करते नही और न ही इनसे मुझे कुछ लाभ प्राप्त होता है। यह सोचकर रावण ने उनसे कर (टैक्स) लेने की योजना बनाई। रावण ने अपने कर्मचारियो को आदेश देकर उन ऋषियो ने पास भेजा।
रावण की आज्ञा पाकर कर्मचारी ऋषियो-मुनियो के तपोवन मे पहुँचे तथा उनको लंकाधिपति का सन्देश कह सुनाया। तब ऋषियो ने प्रत्युत्तर में कहा – ‘जब कि हम सब अहर्निश भगवदाराधन एवं भजनाभ्यास मे ही लीन रहते है, न धनोपार्जन करते है और न ही धन का व्यय, तब हम राजा को धन कहाँ से लाकर देवे?’
रावण के कर्मचारियो ने पुनः ऋषियो से कहा कि ‘राजा रावण के राज्य मे ही तुम सब जीवनयापन कर रहे हो। यहाँ के जंगलो मे से कन्दमूल तोड़कर खाते हो तथा सरकारी (शासकीय) जंगल की लकड़ी से तुम्हारे हवन यज्ञ सम्पूर्ण होते रहते है। सब प्रकार से तुम्हे यहाँ जीविका निर्वाह के लिए साधन उपलब्ध है। अतएव तुम्हारा कर देना राजविधान के अनुसार उचित है।’
तपस्वियों ने कहा कि ‘रावण के पास तो इतनी बडी सोने की लंका है – अनन्त ऐश्वर्य से राजकोष भरे पड़े है। समस्त अलौकिक शक्तिया भी उसने अपने अधिकार मे की हुई है तो हमारे थोडे से लगान के रूप मे दिए गए धन से क्या उसकी तृष्णा शान्त हो जाएगी ? मरते समय क्या वह सब धन-पदार्थ परलोक मे अपने साथ ले जायेगा?’
तपस्वियो से इस प्रकार का उत्तर पाकर राज्य कर्मचारियो को बड़ा क्रोध हो आया। पहले तो उन्होने तपस्वियो को कई प्रकार से धमकिया दिखाई परन्तु धमकी देने के पश्चात भी जब उन्होने अपनी विवशता व्यक्त की तब राज्य कर्मचारियो ने समस्त वृत्तान्त आकर राजा को कह सुनाया। रावण सुनते ही आग बबूला हो उठा और कहने लगा कि ‘यदि वे मेरे राज्य मे रहेगे तो नियमपूर्वक उनको भी कर देना ही पडेगा; अन्यथा वे मेरे राज्य से निकाल दिये जायेगे। हमने किसी की भी चाटुकारिता (खुशामद) नही करनी है।’ इस पर कर्मचारियो ने कहा कि तपस्वियो के पास तो एक पैसा भी नही है। यह सुन कर राजा रावण व उसके कर्मचारियो ने आपस मे यह एक योजना बनाई कि अगर इनके पास और कुछ नही तो इनको कर रूप मे अपने शरीर का रक्त ही देना चाहिए।
समयानुसार प्रत्येक सम्राट अपने प्रभुत्व मे अपने कथनानुसार प्रजा को चलाता है, इसलिए वर्तमान राजा के वचन को टालना मानो मौत को स्वयं निमन्त्रण देना है। इस प्रकार यह योजना बना कर वे पाश्विक वृत्ति वाले क्रूर कर्मचारी समस्त ऋषियो मुनियो व तपस्वियो के आश्रमो पर जाकर उनके शरीरो से बरबस खून निकालने लगे। उस समय ऋषियो ने कहा कि ‘रावण अपनी मौत का सामान स्वयं एकत्रित कर रहा है। किसी ने कहा कि घोर कलियुग आ गया है।’ परन्तु वहाँ पर उनकी कौन सुनता था। जब ऋषियो मुनियो से रक्त से घड़ा पूर्ण हो गया तो वह खून से भरा घड़ा रावण के पास लाया गया। उस समय यह आकाशवाणी हुई कि ‘ऐ रावण ! जो तूने साधु महात्माओ को कष्ट देकर उनके रक्त से यह घड़ा भरा है यह तेरी मृत्यु का कारण बनेगा।’ आकाशवाणी सुनकर रावण बहुत घबराया। उसने अपने कर्मचारियो से कहा कि ‘तुम इस खून से भरे घडे को लंका से कही दूर जमीन में जाकर गाड़ दो।’
लंका से दूर हिमाचल पर्वत की दिशा मे मिथिलापूरी जो कि राजा जनक की राजधानी थी वहाँ जंगल मे उस रक्त कलश को भूमि मे गांड दिया गया। तत्पश्चात वे कर्मचारी लंका मे वापस लौट आये। अब रावण निशिचन्त हो गया था कि मेरी मृत्यु टल गई है तथा कुछ समय बीत जाने पर उसे आकाशवाणी भी विस्मृत हो गई।
प्राचीन समय मे राजा महाराजा अत्यन्त धर्मात्मा हुआ करते थे। वे प्रजा को अपनी सन्तान की भाँति निःस्वार्थ प्यार करते थे। ऐसे ही धर्मात्मा राजा जनक मिथिलापुरी के नरेश थे। एक बार मिथिला मे भीषण अकाल पड़ गया। वृष्टि (वर्षा) न होने के कारण अनाज का एक दाना भी प्राप्त न होता था। सभी मुनष्य, पशु पक्षी भूख से व्याकुल एवं प्यास से छटपटाने लगे। राजा जनक ने हर प्रकार से प्रजा के सुखार्थ प्रयत्न किये। पण्डितो व ज्योतिषियो को अपने पास बुलाया। उसने पूछा की कोई उपाय बताओ जिससे वर्षा हो जाए और मेरी प्रजा के सब कष्ट दूर हो सके। तब पण्डितो ने परामर्श दिया कि राजन! आप एक यज्ञ कराये और सोने के हल से स्वयं एक खेत जोते, उससे वर्षा भी होगी और अनाज की पैदावार भी अच्छी होगी तथा समस्त अकाल दूर भाग जायेगा।
राजा जनक ने ज्योतिषियो के कथनानुसार कार्य किया। आज्ञा होने की देर थी कि सोने का हल बनकर आ गया। तब राजा जनक ने यज्ञ आदि करवाकर नगर से कुछ दूर एक खेत मे स्वयं अपने हाथो से हल चलाया। हल चलाते-चलाते कुछ दूरी पर जाकर अकस्मात हल रूक गया और आगे न बढ सका। जब राजा ने नीचे झुककर पृथ्वी मे देखा कि क्या कारण है हल के रूक जाने का तो उस स्थान से वे मिटटी खोदने लगे। कुछ गडढा हो जाने पर क्या देखते है कि नीचे एक मटका दबा पड़ा है। उन्होंने वह मटका बाहर निकाला जिस मे एक अत्यन्त सुन्दर अबोध बालिका हँसती हुई बैठी है। कलश को तोड़कर उस बालिका को बाहर निकाला। राजा जनक उसे गोद मे उठा कर प्यार करने लगे। मिथिलेश की कोई सन्तान न थी इसलिये वे उस बच्ची को अपने राजप्रसाद मे ले आए तथा उसका नाम सीता जी रखा।
समयानुसार जनक-नन्दिनी बड़ी हुई। श्री रामचन्द्र जी के साथ परिणय सूत्र मे बँध जाने पर यही सीताजी आगे चलकर रावण की मुत्यु का कारण बनी। ऋषियो मुनियो का वचन पूर्ण हुआ तथा आकाशवाणी भी सत्य सिद्ध हुई। तभी तो कहा है कि ‘पापी को मारने के लिए उसका पाप ही महाबली है।’
पाप की उत्पत्ति के सम्बन्ध मे श्रीमदभगवदगीता के ये अध्याय देखने योग्य है।
हे अर्जुन ! रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है – यह बहुत खाने वाला अर्थात् भोगो से कभी न अघाने वाला और बड़ा पापी है – इसको ही इस प्रसंग मे वैरी जान ले।
इसलिए भगवान श्रीकृष्णचन्द्र जी के कथनानुसार विषय रूपी भोगो से बचने के लिए प्रत्येक प्राणी को यत्न करना चाहिये तथा पूर्ण पुरुषों की संगति ग्रहण कर रजोगुण व तमोगुण की प्रवृत्ति को घटाकर अपने जीवन में सात्विक गुणो को भरना चाहिये। सतुगरू की कृपा से ही इन प्रचण्ड मानसिक शत्रुओ से बचा जा सकता है।