साध्वी जनीबाई का नाम तो आपने सुना ही होगा। साध्वी जनीबाई एक शुद्र कुल से थी, लेकिन उन्होने अपनी सच्ची लगन व प्रेम-भक्ति द्वारा भगवान को अपना बना लिया था। जैसे कहा भी है –
।। दोहा ।।
नीच नीच सब तर गये, सन्त शरण जो लीन ।
जाति के अभिमान मे, डूबे सकल कुलीन ।।
भक्ति का अधिकार केवल उच्च स्तर अथवा ऊँची जात-पात वालो को ही होता है, ऐसा कहना सर्वथा अनुचित है। जैसे वर्षा का जल तो प्रत्येक स्थान पर एक जैसा बरसता है, परन्तु उसका पूरा-पूरा लाभ तो हरे-भरे पौधे ही उठा पाते है, सूखा काष्ठ नही। इसी प्रकार भगवान की कृपा तो सब पर हुआ करती है लेकिन उसे वही पा सकते है जिसमे भक्ति व प्रेम की तीव्र लगन हो। साध्वी जनीबाई इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है कि उन्होने प्रेम-भक्ति द्वारा भगवान को अपना बना लिया था। पूरा दृष्टान्त प्रकार है –
प्रभु-प्रेमिका जनीबाई का जन्म एक शूद्र कुल मे हुआ था। इनके माता-पिता अति निर्धन थे। वैसे भी यह जाति समस्त गांव मे नीच समझी जाती थी। फिर भी उन लोगो में प्रायः सच्चाई, सादगी और शुभ विचार अधिकांश मात्रा मे पाए जाते थे।
एक बार पण्ढ़रपुर गांव मे कार्तिक-स्नान का उत्सव मनाया जा रहा था। जनीबाई उस समय अल्प अवस्था मे माता-पिता के साथ वहां पर गई। उस समय भगवान विटठ्ल के मन्दिर मे सन्त नामदेव जी सत्संग व किर्त्तन कर रहे थे। शूद्र जाति के लोगों को यद्यपि उस समय मन्दिर के भीतर नही जाने दिया जाता था तथापि वे मन्दिर के आँगन मे बैठ कर संत्सग का आनन्द ले लिया करते थे। जनीबाई के संस्कार तो पहले से ही अच्छे थे। ऊपर से नामदेव जी के संत्सग श्रवण करने से इसके हदय में प्रेम-भक्ति की तीव्र लगन जाग्रत हो गई। जनीबाई ने हदय मे यह दृढ़ निश्चय कर लिया था कि वह अब अपने गाँव न लौट कर श्री नामदेव जी की संगति मे रह कर शेष जीवन भक्ति मे बितायेगी।
जब उनके माता-पिता उत्सव के समाप्त होने पर अपने गांव लौटने लगे, तब जनीबाई ने गांव लौटने से साफ इन्कार कर दिया और दृढ़ता से कहा – ‘अब मै तो सन्तों की सेवा मे ही शेष जीवन बिताऊँगी।’ बहुत समझाने बुझाने पर भी जब वह न मानी, तो माता पिता उसे मन्दिर मे छोड़ कर गांव लौट आये।
इधर सत्संग समाप्ति पर सब लोग उठ कर अपने घरो मे लौट चले, परन्तु अन्त मे जब केवल नामदेव जी रह गए तब अकेली बच्ची को देखकर उसे अपने पास बुलाया और उससे हाल-चाल पूछा। जनीबाई ने कहा – ‘महाराज! मेरे माता-पिता तो उत्सव देखकर चले गए है और मै यहां पर आपके चरणों की सेवा मे रहने की अभिलाषा से रह गई हूँ। आप दया के सागर है, मुझ दीन-हीन अनाथ बच्ची को कृपा कर अपने श्री चरणों मे कृपा करे तथा अपनी पवित्र सेवा का सौभाग्य प्रदान करे। यही कुछ दासी की तुच्छ विनय है।’ इतना कहकर वह बालिका रोती हुई श्री नामदेव जी के चरणों मे गिर पड़ी। हदय के भावों को जानने वाले सन्त नामदेव जी इस छोटी सी बच्ची का अतुल प्रभु-प्रेम देखकर बहुत ही प्रसन्न हुए। उसके सिर पर प्यार से दया का हाथ रखा और बड़ी प्रसन्नता के साथ उसे अपने आश्रम पर ले आये। जनीबाई अब उनके चरणों की दासी बन कर उनकी सेवा मे तन-प्राण से जुट गई।
जनीबाई अब श्री नामदेव जी के यहाँ सब सेवा जैसे – झाडू लगाना, पानी भरना, भोजन बनाना, व सब को खिलाना, कपड़े धोना इत्यादि सब कार्यो को मन लगाकर करने लगी। नामदेव जी के यहाँ सदैव सन्तो का समागम बना रहता था। इसलिए जनीबाई को अधिकाधिक सेवा प्राप्त करने का अवसर प्राप्त होता था। इस प्रकार सेवा के प्रताप से ही जनीबाई ने श्रेष्ट पदवी प्राप्त की। उसने मुक्त हदय से सन्त-महात्माओ की सेवा की जिससे वह प्रेम-भक्ति की साक्षात् प्रतिमा ही बन गई। उस पर प्रेम का रंग कुछ इस प्रकार चढ़ने लगा कि वह भगवान के ध्यान मे मग्न होकर प्रायः अपने शरीर की सुध-बुध भूल जाती। यहाँ तक की कभी-कभी सेवा के अति आवश्यक काम को भी प्रभु-प्रेम मे खोकर विस्मृत कर बैठती थी, परन्तु भक्त वत्सल भगवान को तो सदैव अपने प्रेमियो का ध्यान रहता ही है। इधर साध्वी जनीबाई जब प्रेम-विभोर होकर समाधि मे लीन हो जाती, तो उसके सभी कार्य स्वतः निशिचत समय पर पूर्ण हो जाते थे। अधिकांश वह प्रातःकाल आटा पिसने के समय भजन मे मग्न हो जाती तो उसे आने पर चक्की पर आटा पिसा हुआ तैयार मिलता। एक दो बार सन्त-महात्माओ के वस्त्र धोते समय वह समाधिस्थ हो गई तो इधर वस्त्र स्वयंमेव धूल गए। किसी को भी जनीबाई से कुछ कहने की आवश्यकता ही न पड़ती थी। स्वयं भगवान आकर अपनी प्रेमिका के कर्त्तव्यो को निभा जाते थे अर्थात् पूर्ण कर देते थे।
एक बार का वृत्तान्त है एक अनोखी घटना घटी। उस समय रात्रि को अधिक समय तक संत्सग तथा भजन मे लीन रहने के कारण वह प्रातः आटा पीसने के ठीक समय पर न जाग सकी। विलम्ब से उठने पर वह शीघ्रता से आकर जल्दी-जल्दी आटा पिसने लगी। इतने मे क्या देखती है कि स्वयं भगवान उसके पास आकर आटा पिसने लगे है। जनीबाई तो भगवान के साथ वार्त्तालाप करते-करते अपनी सुध-बुध खो बैठी परन्तु चक्की फिर भी पूर्ववत् शीघ्र गति से चलती रही। जल्दी-जल्दी चक्की चलाने के कारण श्री भगवान जी को अत्यधिक गर्मी अनुभव होने लगी – साथ ही पसीना आने के कारण बदन पर पानी के कण-कण से छा गये। उस समय भगवान अपने मनोहर कण्ठ मे जो हीरो जड़ा अमूल्य भारी हार धारण किए हुए थे। गर्मी लगने के कारण उन्होने जल्दी से हार उतार कर नीचे चक्की के पास ही रख दिया और तीव्र गति से चक्की चलाते रहे, क्योकि लोगों के जागने का समय लगभग हो चुका था। आटा पिस जाने पर भगवान् शीघ्रता से बिना हार उठाये ही चले गए। जल्दी जाने के कारण वह हीरो जडित हार वही पर ही रह गया, जहाँ निकट ही जनीबाई प्रेम मे सुध-बुध खोकर समाधि मे लीन हुई बैठी थी।
जनीबाई को भगवान के चले जाने का तनिक भी ज्ञान न हो पाया क्योकि वह तो अपने अन्त:करण मे प्रभु के साक्षात् दर्शन कर रही थी। उधर मन्दिर के खुलने पर आरति-पूजा का भी समय हो चुका था। इसलिए पुजारी लोग भगवान की प्रतिमा को स्नान कराने लगे। एकाएक श्री भगवान जी की मूर्ति पर जब पुजारी की दृष्टि पड़ी तो वह घबरा गया क्योकि उस समय भगवान के गले मे वह अति मूल्यवान हार सुशोभित न था, जिसका की मूल्य कई हजारो रूपये तक था। तत्काल ही सब और खबर फैल गई ओर खोज शुरू हो गई। मन्दिर का कोना-कोना छान डाला, परन्तु माला का कही से भी पता न लगा। सब चिन्तित होकर इधर-उधर खोज कर रहे थे। किसी चोर का कोई भी पद-चिन्ह मूर्ति के समीप न था और न ही मन्दिर के बाहर कही पृथ्वी पर कोई चिन्ह दृष्टिगत हो रहा था। जिससे की चोर का अनुमान लगाया जा सके।
इधर जनीबाई आटा पिसते पिसते ध्यान मग्न हो कर बैठ गई। काफी समय बीत गया था। दूसरे काम-काज उसके बिना अधूरे पड़े थे। बहुत देर तक उसे आया न देख कर नामदेव जी के सेवक उसे खोजते हुए उसी कमरे मे आये, जहाँ की आटा पिसा पड़ा था। वहाँ आकर क्या देखते है कि जनीबाई तो सुध-बुध भूलाकर समाधि मे लीन है तथा निकट ही वह हीरो-जड़ित हार पड़ा हुआ है। माला को देखकर पहले तो वे आश्चर्यचकित रह गए, पश्चात परस्पर कहने लगे – ‘हार तो इसने ही चुराया है देवालय से। यह आँखे मूँदना और समाधि लगाना तो बगुले भक्त का सा आडम्बर है।’ इतना कहकर उन्होने जनीबाई को जगाया और मन्दिर के पुजारी को भी समाचार दिया कि हीरो जड़ित हार जनीबाई से प्राप्त हुआ है। बस फिर क्या था, चोरी का अपराध जनीबाई पर लगाया गया तथा उसे बन्दी बना लिया गया।
जनीबाई को अपराधी की भांति राजा साहब जी के समक्ष उपस्थित किया गया। जब हीरो जड़ित हार के विषय मे उससे पूछा गया तो जनीबाई ने अपराध स्वीकार नही किया। जब उसने कोई अपराध ही न किया था तो वह कैसे स्वीकार करती? केवल नीच जाति होने के कारण सब उस पर सदेंह कर रहे थे। अतएव हार चुराने के कारण तथा उस पर अपराध स्वीकार न करने के कारण जनीबाई को देश के सम्राट ने सूली पर चढ़ाने का कठोर दण्ड सुना दिया। ‘भीमा’ नदी के तट पर सूली बनाई गई और जनीबाई को उस पर चढ़ाने का प्रबन्ध भी कर दिया गया।
श्री भगवान भला अपने प्रेमियो और अपने सच्चे भक्तो का अपमान होता कहा देख सकते है। उन्होंने तो अपने अनन्य प्रेमियो की लाज बचाने का प्रण किया हुआ है। फिर वे प्रभु भक्त-वत्सल भगवान अपने अड़िग वचन से कहां टलने वाले थे। सो निशिचत समय पर जब जनीबाई को सूली पर चढ़ाया जाने लगा – तो अब आगे उस लीलामय भगवान की अलौकिक शक्ति का चमत्कार भी देखिये, कि ज्यों ही प्रेम दीवानी जनीबाई को सूली पर चढ़ाया जाने लगा तो उस समय समस्त दर्शक गणों के मुँह आश्चर्य से खुले के खुले रह गये। हुआ क्या ? कि सूली की रस्सी स्वयंमेव बिना किसी चेष्टा के दो टुकड़े हो गई। ऐसा अदभुत् कौतुक देखकर राजा साहब की व पुजारियों की आँखे खुली। अब सब को ज्ञात हुआ कि जनीबाई साधारण स्त्री न होकर भक्ति व प्रेम की साक्षात् प्रतिमा है। इस पर वहां के राजा व जिस जिस ने भी इस पर सन्देह किया था वे सब अपने किये पर पश्चाताप करने लग। सब ने सादर उनके चरण स्पर्श किये और उनसे क्षमा याचना की। अब वहां के समस्त निवासियो के दिल मे उनके प्रति अत्यधिक श्रद्धा पैदा हो गई।
जो भगवान के सच्चे व अनन्य भक्त होते है, उनके हदयो मे किसी के प्रति वैर-विरोध व ईष्या आदि नही होते। जनीबाई अब तक पूर्ववत् शान्त मुद्रा मे ही बैठी थी। मानो कुछ हुआ ही न हो। तत्पश्चात वह पहले से भी बढ़कर प्रभु-प्रेम व सेवा मे अपना समय व्यतीत करने लगी।