किसी ने सत्य ही कहा है कि –
आज के वैज्ञानिक युग से बहुत प्राचीन समय पूर्व की बात है जबकि समय-सूचक अर्थात् घडियों का भी अभी आविष्कार न हुआ था। लोग दिन मे सूर्य से तथा रात्रि मे तारो द्वारा समय ज्ञात कर लेते थे। रात्रि के भी चार पहर माने जाते थे। तीन घंटे का एक पहर होता था और चार पहर का एक दिन। उदाहरणत: नौ बजे तक पहला पहर, मध्याहन (दोपहर) दूसरा तथा तीसरा पहर सायकांल होने पर व चौथा पहर रात्रि के आ जाने पर माना जाता है।
उन दिनो सूर्य के उदय होने से पूर्व ऊषा वेला मे मुर्गा बाँग देता था। उसके कुछ देर बाद ही सूर्योदय होता था। उस समय के लोगों के दिल मे यह बात दृढ़ता से घर की हुई थी कि मुर्गे के बाँग देने पर ही सूर्य निकलता है। अगर मुर्गा बाँग न दे तो सूर्य कभी उदय हो ही नही सकता। तब चारों तरफ अंधेरा ही बना रहेगा।
इसी धारणा पर आधारि यहाँ एक दृष्टान्त दिया जा रहा है-
किसी गाँव मे एक बुढ़िया रहती थी। उसके पास एक मुर्गा था। गाँव के लोगों को यह विश्वास था कि इस बुढ़िया के मुर्गे के बाँग देने के उपरान्त ही सूर्य भगवान के दर्शन होते है। इसी कारण ही ग्रामवासी मुर्गे वाली बुढ़िया का आदर-सत्कार किया करते थे। उनके लिए बुढ़िया पूज्या थी इसलिए घर मे दूध, घी, सब्जी, अनाज, लकड़ी इत्यादि जिससे जो कुछ बनता इसके घर पहुँचा आते थे। तथा वह जो काम भी करने को कहती सभी लोग आदर श्रद्धा से वह काम कर देते। जैसे – वह कुँए पर पानी भरने जाती तो सबसे पहले बुढ़िया का घड़ा भर दिया जाता। सभी गाँव वालो का यही प्रयास होता कि बुढ़िया प्रसन्न रहे। इस प्रकार सबकी दृष्टि मे वह सम्मान का पात्र बनी हुई थी। यदि वह किसी से अप्रसन्न हो जाये तो प्रत्युत्तर मे कोई एक शब्द भी बोलने का साहस न कर पाता। ऐसा क्यो ? क्योकि वह सब जानते थे कि यदि यह रूष्ट होकर कही चली गई तो हमारे गाँव में सूर्य कभी उदित न होगा और सदैव रात ही बनी रहेगी। बुढ़िया को भी इस बात का गर्व सा हो गया था। इसलिए वह बात-बात मे लोगों को धमकी दिया करती थी कि ‘तुम जानते हो! मै मुर्गे को लेकर दूसरे गाँव चली जाँऊगी फिर तुम सबको अफसोस करना पड़ेगा और मुझे मनाते फिरोगे।’
इस प्रकार पर्याप्त समय व्यतीत हो गया। अकस्मात् एक दिन आपस मे कुछ लड़कों की लड़ाई हो गई। इसी झगड़े के दौरान मे बुढ़िया के लड़के को भी किसी ने दो-चार चपत जमा दिये। वह रोता-रोता माँ के पास आया। उसे रोता देख पहले तो बुढ़िया ने इतना शोर मचाया कि आसमान को मानो सिर पर उठाना चाहती हो। गाँव वालो ने बहुत समझाया और उसे मनाने लगे कि ‘बच्चे गलती कर बैठे है, तुम जो भी दण्ड देना चाहो, हमे स्वीकृत है।’ बुढ़िया गर्वित होकर कहने लगी कि ‘मै तो इस गाँव मे अब कदापि न रहूँगी और अपने मुर्गे को भी साथ मे ले जाऊँगी।’ जैसे वह सदैव ही धमकी दिया करती थी, अब उसने ऐसा ही किया। अपने पुत्र व मुर्गे को साथ लेकर बीस-पच्चीस मील दूर अपने किसी रिश्तेदार के यहां चली गई।
एक दिन तो जैसे-तैसे गुजरा और रात भी आई। गाँव को तो पहले ही निश्चय था कि हमारे गाँव मे अब न मुर्गे ने बाँग देनी है और न ही सूर्य ने आँख खोलनी है। रात को गाँव वालो ने पंचायत की और कहने लगे कि अब कैसा होगा ? क्योकि यहाँ पर अब मुर्गा नही है। अब तो यहाँ दिन को भी रात्रि की भाँति अन्धेरा ही छाया रहेगा। एक विचारवान् मनुष्य ने कहा कि दो व्यक्ति जाकर बुढ़िया कि चिरौरी कर उसे वापस बुला लावें। दूसरे व्यक्ति ने सम्मति दी कि पहले तो हमें यह ज्ञात नही कि वह कहाँ गई है। दूसरा अंधेरे मे कोई कहाँ जा सकता है। इस प्रकार विचार-विमर्श करते हुए सब सो गए।
जब रात्रि के तीन बजे तो लोग स्वभाव वश स्वतः उठ गये। यद्यपि दुकान वालों ने दिपक जला कर दुकाने खोल दी तथा गृहणियो ने प्रदीप जलाकर घरो के काम करने शुरू कर दिये परन्तु निराशा सभी के अन्तराल मे डेरा डाले हुए थी। लोगो को पूर्णरूपेण विश्वास हो गया था कि अब सूर्योदय तो होने से रहा।
जब सूर्य निकलने का समय आया तब पूर्व की और आकाश मे लालिमा दृष्टिगोचर होने लगी। लोग आश्चर्यचकित होने लगे कि आज तो सूर्योदय होना ही नही – फिर यह लालिमा कैसी! इसके कुछ क्षणों के पश्चात सूर्य ने भी पूर्ववत् दर्शन दिए। पहले तो गाँव वासियो के आश्चर्य की सीमा न रही। पश्चात सूर्य के निकल आने पर उन सबकी प्रसन्नता का कोई ठिकाना न रहा। जब दो-चार दिन बीत गये कि बिना मुर्गे के बाँग दिये दिन चढ़ जाता है तो यह देखकर अब उन्हे विश्वास हो गया था कि मुर्गे के बाँग दिये बिना भी सूर्य उदित हो सकता है। सभी भगवान को हदय से धन्यवाद देने लगे और शुक्र मनाया कि चलो उस झगड़ालु बुढ़िया से पिण्ड छूटा।
अब थोड़ा परिचय उस बुढ़िया का भी ज्ञात कर लिजिए। जब 10-15 दिन व्यतीत हुए और बुढ़िया को मनाने कोई न गया तो एक दिन वह स्वयं पता करने निकली। उसके दिल मे अब तक यह विचार था कि लोग अभी तक अन्धेरे मे परेशान हो रहे होगे। तथा मेरे जाने पर वे मेरे आगे हाथ जोड़ेगे – मेरी चिरौरी करेगे। किन्तु यह सब उसका वहम था। जब वह गाँव मे पहुँची तो क्या देखती है कि यहाँ तो सूर्य चढ़ा हुआ है। तब बुढ़िया चौकी और अपने किये हुए पर बहुत पछताई। गाँव वालो को अब उसकी क्या परवाह थी।
उसी दिन से यह कहावत प्रसिद्ध हो गई कि ‘क्या मुर्गा बाँग ने देगा तो सूर्य न निकलेगा ?’
तात्पर्य यह है कि दुनिया के काम किसी के किये या ना किये से रूका नही करते। यदि कोई गर्व करे कि अमुक काम मै करता हुँ, यदि मै न करू तो यह काम हो ही नही सकता। उसकी यह कल्पना मिथ्या और नितान्त भूल है। इस सृष्टि मे बड़े-बड़े राजा-महाराजाओ के चले जाने पर आज तक कोई कार्य अपूर्ण नही रहा तो फिर एक साधारण मनुष्य के दिल मे अगर अपनी योग्यता का घमण्ड है तो यह उसकी मूर्खता नही तो क्या है ? विशेषकर सतगुरू के दरबार मे तो किसी भी सेवक के दिल मे ऐसा विचार न होना चाहिए, अपितु श्री दरबार की सेवा करते हुए अपने अहोभाग्य समझने चाहिए। यह ऊपरलिखित दृष्टान्त है तो साधारण परन्तु है शिक्षाप्रद। जैसे की बुढ़िया को अभिमान था कि मेरे मुर्गे के बाँग देने से ही सूर्य चढ़ता है, लेकिन कुदरत के कामों को कौन रोक सकता है ? इसलिए किसी भी प्राणी को अपने किसी गुण का अभिमान नही करना चाहिए क्योकि इस प्रकृति-नाटक का सूत्रधार वह परम पिता परमात्मा है। जो सर्वशक्तिमान् सर्वज्ञ और सर्वव्यापी है। उसका यह अखिल सृष्टि-चक्र अनादि काल से ही चला आ रहा है और अनन्त काल तक घूमता ही रहेगा। मानव का मिथ्या अभिमान करना निरर्थक है। प्रत्येक कार्य की पूर्ति के लिए प्रकृति स्वयं ही प्रबन्ध किया करती है।