यहाँ नीचे एक दृष्टान्त दिया जा रहा है कि एक राजा जो पहले राज्य को अपना मानकर दुःखी रहता था, वही राज्य जब उसने अपने गुरु पराशर ऋषि का समझ लिया फिर वह राज्य उसके लिए सुखदायी बन गया। पूरा प्रंसग इस प्रकार है –
एक राजा जो कि पराशर मुनि जी का शिष्य था। उसने एक बार मुनि जी से आकर कहा – ‘महाराज! मै संसार के दुखो से बहुत तंग आ गया हूँ। इनसे निवृत्ति पाने का कोई साधन बतलाइये।’
पराशर जी ने कहा – ‘राजन्! संसार को छोड़ दो तो फिर दुःख स्वतः ही तुम्हारी और पीठ कर देगे।’ इस पर राजा साहब ने कहा – महाराज! मै तो बहुत दिनों से राज्य त्यागने को तैयार हूँ। केवल यही एक विचार मेरे मन मे आ रहा है कि मेरा पुत्र अभी अल्पायु है। जिस समय वह राज्य का काम सँभालने के योग्य हो जायेगा उस समय तत्काल उसे राज-पाट सौंप कर मै संसार का त्याग कर दूँगा।
पराशर जी ने कहा – ‘अगर वास्तव मे तुमको संसार के दुःख पीड़ा दे रहे है तथा तुम्हारा विचार इनको इसी समय छोड़ने का एवं राज्य त्यागने का भी है तो फिर पुत्र के युवा होने की प्रतीक्षा करना उचित नही, न मालूम वह युवावस्था के आने तक जीवित रहे अथवा नही। यदि जीवित भी रहे तो सम्भव है कि वह राज्य-संचालन के योग्य हो अथवा अयोग्य। अतएव अच्छा तो यही रहेगा कि तुम राज्य हमको दे दो और संसार के दुःखो से छुटकारा प्राप्त करो।’
पराशर मुनि की इस ज्ञानभरी बात ने राजा साहब के हदय पर बहुत अच्छा प्रभाव डाला, उन्होने तत्क्षण ही प्रसन्नतापूर्वक अपना राज्य पराशर मुनि जी के नाम पर संकल्पित कर दिया और सहर्ष वहां से उठकर जंगल की और जाने लगे। उन्हे जाते देख पराशर जी ने सम्राट से पूछा – राजन्! कहाँ जा रहे हो?
राजा साहब ने प्रत्युत्तर मे कहा – ‘महाराज! आपने कृपा करके मुझे राज्य के बोझ से स्वतन्त्र किया है। इस लिए अब मै जहाँ चाहूँगा वही रहूँगा। मात्र दो रोटी की ही अपेक्षा है और वह थोड़े से परिश्रम से अथवा घड़ी दो घड़ी के घास खोदने से प्राप्त कर सकता हूँ।’ तब पराशर मुनि जी ने कहा – ‘राजन्! तुमने कभी घास खोदी ही नही इसलिए तुमको इस नये काम को करने मे अत्यधिक कष्ट व कठिनाई का सामना करना पड़ेगा क्योकि हर एक काम के प्रारम्भ मे कष्ट तो उठाना ही पड़ता है। इसी प्रकार हमने भी राज्य का कार्य व्यवहार कभी नही किया है इससे हमको भी राज्य करने में कई कठिनाइयो का सामना करना पड़ेगा। हम भी तो किसी न किसी व्यक्ति को राज्य सौपेंगें ही, परन्तु हमको तुम्हारे से अधिक राज्य के कार्यो का अनुभवी व्यक्ति शायद ही कहीं से दूसरा मिल सके। अतएव अच्छा तो यही रहेगा कि तुम हमारी तरफ से हमारी आज्ञानुसार व हमारा राज्य समझकर राज्य संचालन करो। जो कुछ हानि लाभ होगा वो हमारा होगा। तुम केवल राज्य से शरीर की आवश्यकता पूरी करो और प्रति वर्ष सारा हिसाब हमे दे दिया करो।’
राजा साहब ने मुनि के कथनानुसार वैसा ही किया। राजा साहब अब राज्य को अपने गुरुदेव का ही समझते थे। इसलिए बड़ी उमंग, उत्साह, परिश्रम, न्यायपूर्वक एवं सच्चाई से समस्त कार्य व्यवहार करने शुरू कर दिये। जिससे चारो तरफ उन्नति व सफलता के चिन्ह दृष्टिगोचर होने लगे। अब राजा साहब अपने गुरूदेव पराशर जी की बुद्धिमत्ता एवं दूरदर्शिता का बारम्बार धन्यवाद और प्रशंसा करने लगे। राजा साहब अब दिल मे सोचा करते कि यदि अन्य राजा-महाराज, सेठ-साहूकार इसी प्रकार अपना धन आदि अपने परमपिता परमात्मा का ही समझ एवं स्वयं को उनका एकमात्र किकंर जानकर जैसा कि वस्तुतः मनुष्य है, न्याय एवं सच्चाई से व्यवहार करता चला जाए तो स्वयंमेव दुनिया के कष्ट क्लेशो से छूट जायेगा और तब यह दुःख देने वाली दुनिया सुख मे परिवर्तित हो जाएगी।
तात्पर्य – गुरूमत क्या है? यह एक राज (भेद) है और है एक रहस्य। न किसी का सिर काटा जाता है, न किसी का कुछ छिना जाता है अपितु सिर का बोझ उठाकर गुरू के चरणों मे रख दिया जाता है और सेवक निद्वन्द हो जाता है। अब उसके सिर पर बला नही रही, गठरी उतर गई, बोझ हल्का हो गया, काम-काज का व्यवहार व धन्धा उसी तरह का है – बात क्या हुई? वो जो करता है, गुरू के नाम पर करता है, अपने लिए कुछ नही करता। इसमे हानि क्या हुई? कुछ भी नही। पहले जितना काम था बन्धन का कारण था, अब आजाद हो गया, बोझ उतर गया हल्का हो गया, अब सुख चैन के साथ घूमना फिरना है, व्यवहार व परमार्थ का काम करना है, जब तक बन्धन था तब तक कदम कदम पर दुःख था। देखो, बन्धन कैसे आसानी से कट जायेगा। अब सेवक स्वतन्त्र है उसका कुछ नही बिगड़ा जो कुछ था ज्यों का त्यों है। दिन दुगुनी रात चौगुनी तरक्की भी है। हाँ, बन्धन के खटपट का सौदा नही है। जो करता है गुरू के नाम पर करता है, मौज मे रहता है, सुख-दुःख का टाट उलट दिया, उसे सहज समाधि का आनन्द मिलने लगा चित्त मे समता आ गई, सहज योग की युक्ति उसको समझ मे आ गई। Aअब हर समय एकरस रहता है। उसे न काल व्यापता है न माया सताती है क्योकि सताने की चीज बन्धन की हालत थी, वह गई, अब तो आनन्द ही आनन्द है। यह अवस्था इसी जिन्दगी मे प्राप्त कर लो। ऐ भाई! जिसे इसको लेना हो इसी जन्म मे ही ले लो।
।। दोहा ।।
गुरू मत और सन्त सदगुरू अपने सत्संग मे इसी का भेद प्रदान करते है यही सत्तनाम का सौदा है।