यदि कोई मनुष्य चाहे कितना भी धनवान हो, चाहे कितना ही उच्चपद पर हो ओर कितना ही अधिकार रखता हो, ईश्वर की समानता नही कर सकता और न ही ईश्वर के समान कृपालु हो सकता है, फिर उसका द्वार खटखाने, उसकी आस रखने ओर उसके आगे हाथ फैलाने से क्या लाभ? उसको देनेवाला भी तो ईश्वर है। फिर क्यो न मनुष्य उस सर्वेश्वर के द्वार का भिखारी बने, उनकी ही शरण ले और उनकी कृपा का पात्र बने, जो स्कूल विश्व के स्वामी तथा पालयिता है।
इस विषय पर एक प्रसंग प्रस्तुत का रहा हुँ।
बादशाह शाहजहाँ के दीवान थे – वलीराम! वे बडे इमानदार, सत्यप्रिय और भक्तिभाव वाले व्यक्ति थे, इसालिए शाहजहाँ उनका बहुत आदर करता था।
जब औरंगजेब गददी पर बैठा, तो वलीराम ने अपने पद से यह बहाना बनाकर त्यागपत्र देना चाहा कि उसकी आयु अधिक हो गई है। किन्तु औरंगजेब जानता था कि वलीराम ईमानदार, सच्चा और साधु प्रकृति का व्यक्ति है, इसीलिए उसने वलीराम का त्यागपत्र स्वीकार न किया। औरंगजेब के दिल मे भी वलीराम के लिए सम्मान था, अतः वलीराम जैसे ही दरबार मे आते, बादशाह तुरन्त उन्हें बैठने का संकेत कर देता।
एक दिन वलीराम जब दरबार मे पहुंचे, तो उन्हें बताया गया कि बादशाह ऊपर बालाखाने मे है। वे ऊपर पहुंचे। गर्मी के दिन थे। बादशाह औरंगजेब किसी कार्य में व्यस्त था। उस पर बड़ा छाता तना हुआ था। वलीराम दीवानखाने के कागज बगल मे दबाये हुए पहुँचे और जाकर नियमानुसार सलाम किया। बादशाह ने उत्तर मे सिर तो हिला दिया; परन्तु फिर अपने काम मे व्यस्त हो गया। वलीराम बहुत देर तक इस बात की प्रतीक्षा करते रहे लेकिन बादशाह ने उनकी ओर ध्यान तक नही दिया। अन्ततः वलीराम उकता गये ओर उन्होंने वही एक निर्णय ले लिया।
उन्होंने कलमदान ओर सब कागज तख्त के सामने रख दिये और चुपचाप वहाँ से निकलकर घर आये और तुरन्त लड़को को बुलाया और अपनी लाखो की सम्पत्ति आधी लड़को मे बांट दी और आधी ब्राहमणो और फकीरो मे। इतना करते ही वे घर से निकल गये।
बहुत देर बाद जब औरंगजेब ने काम से निपटकर सिर ऊपर किया, दीवान का कलमदान और कागज सामने रखे पाये, परन्तु वलीराम नजर न आये।
बादशाह ने पूछा – “दीवान जी कहाँ गये?”
किन्तु किसी को पता होता, तो उत्तर देता। बादशाह ने एक नौकर को उनके घर भेजा, तो पता चला की सब सम्पत्ति लड़को, ब्राहमणो तथा फकीरो मे बाँटकर स्वयं घर से चले गये है। बादशाह ने आदेश दिया – “खोज करो, कहाँ गये?”
कई दिनों के उपरान्त खोजियों ने समाचार दिया कि एक फफीर जिनके तन पर केवल एक लंगोटी है, शरीर पर भभूत मले यमुना के किनारे लेटा हुआ है। वलीराम से शक्ल-सूरत मिलती है, परन्तु पूछने पर कोई उत्तर नही देता कि कौन है? सम्भव है कि वलीराम ही हो।
औरंगजेब क्योंकि वलोराम के स्वभाव को जानता था, इसलिए कहते है कि वह स्वयं राज्य के अन्य मंत्रियो के साथ वहाँ पहुँचा, जहाँ वलीराम पाँव पसारे रेत मे लेटे हुए थे।
बादशाह ने पहुँचते ही प्रश्न किया – “वलीराम! पाँव फैलाना कब से सीखा?”
वलीराम ने उत्तर दिया – “जब से हाथ सिकोडो”
बादशाह – “वापस चलो और अपना काम सँभालो।”
वलीराम – “वह एक अवस्था थी, जो गुजर गयी; अब उसका वापस आना असम्भव है।”
बादशाह – “तुम इतने बड़े राज्य के दीवान का पद और संसार के सूखैश्वर्य छोड़कर यहाँ रेत मे पडे हो, इससे तुम्हे क्या मिलेगा?”
वलीराम – “जेठ की गर्मी मे एक पहर तक खड़ा रहा, परन्तु आपने ध्यान तक नही दिया। अभी मैने बादशाहो के शंहशाह उस सर्वेश्वर की ओर मुख ही किया है, तो इतना तो मिल ही गया कि आप स्वयं चलकर यहाँ आये है, भविष्य में तो न जाने और क्या-क्या मिलेगा। अब उस सर्वेश्वर की शरण त्यागकर किसी और की नौकरी नही करूंगा। आज मुझे विश्वास हो गया है कि जो सबकी आशा तजकर ईश्वर की शरण लेता है, उसे कोई अभाव नही रहता। आवश्यकता है – केवल दृढ़ विश्वास की।”