।। दोहा ।।
रजत सीप महँ भास जिमि, यथा भानु कर वारि ।
यद्यपि मृषा तिहुँ काल सोई, भम्र न सकै कोउ टारि ।।
।। चौपाई ।।
ज्यों स्वपने शिर काटै कोई ।
बिनु जागे दुःख दूरि न होई ।।
इन पक्तियों मे गोस्वामी तुलसीदास जी ने स्वप्न व भम्र के विषय पर कितना रूचिकर प्रकाश डाला है कि जिस प्रकार की सीप मे चाँदी व सूर्य की किरणों का रेत मे पड़ने से पानी का आभास होता है। चाहे यह बात तीन काल मे असत्य है तथापि इस भम्र को कोई नही दूर कर सकता। जैसे स्वप्न मे कोई किसी का सिर धड़ से विलग कर दे तो बिना जागे वह दुःख दूर नही हो सकता। इसी तरह से इस संसार रूपी रात्रि मे समस्त जीव अज्ञान की निन्द्रा मे सोये हुए नाना प्रकार के स्वप्न देख रहे है। वे स्वप्न यदि किसी समय अच्छे आ जाये तो जीव स्वप्न मे ही प्रसन्न होने लगता है। यदि स्वप्न भयानक अथवा किसी से लड़ाई-झगड़ा हो जाये या शरीर के अस्वस्थ होने पर तथा शारीरिक सम्बन्धियो के प्रति अशुभ दीख पड़ने पर मानव अत्यन्त दुःखी हो करूणा क्रन्दन करने लगता है। परन्तु स्वप्न तो स्वप्न ही है – इसमे वास्तविकता कुछ नही।
हम अपने इसी भाव पर प्रकाश डालने के लिए इसी विषय पर एक दृष्टान्त नीचे दे रहे है कि किस प्रकार एक देश का सम्राट स्वप्न के सम्बन्ध मे अपने मन्त्रि-मण्डल से प्रश्न करता है कि ‘यह सच्चा की वह सच्चा ?’ इस पर एक वृद्ध प्रधानमंत्री जो कि भक्ति-भाव के विचार रखता है। उसने कहा – ‘महाराज! न यह सच्चा न वह सच्चा।’ इसका पूर्ण परिचय आपको नीचे लिखे दृष्टान्त मे मिलेगा –
एक बार कोई राजा साहब अपने अतीव रमणीय सुसज्जित राजमहल मे रात्रि के समय कोमल, सुखद शय्या पर विश्राम कर रहा थे। चारों और सुगन्धि फूट रही थी। राजा साहब के शयन-प्रकोष्ठ (कमरे) मे झाड़-फानूस लगे हुए थे। नोकर-चाकर भीतर बाहर राजा साहब का आदेश पाने की प्रतीक्षा मे हाथ बाँधे खड़े थे। हर तरफ निस्तब्धता छाई थी। अर्द्धरात्रि होने पर राजा साहब को स्वप्न आया – क्या देखते है कि किसी दूसरे देश के सम्राट ने इनके राज्य पर आक्रमण कर दिया है। शत्रु-सेना अपरिमित है तथा हर प्रकार के युद्ध करने वाले अस्त्र-शस्रो से सुसज्जित होकर रण के लिये आई है। उस समय इस देश के सम्राट ने भी युद्ध के लिए अपनी वाहिनी (सेना) को भी तैयार करवाया और शत्रु राजा से दो-दो हाथ करने के लिए समर-भूमि मे आकर डट के खड़ा हो गया।
अन्ततः रणभेरी बजी और घमासान युद्ध प्रारम्भ हुआ, लोहे से लोहा बजा। राजा के सैनिको ने बड़ी शूरवीरता से विपक्षी सेना का सामना तो किया परन्तु ज्यादा देर तक न टीक सकी और पराजित होकर भाग खड़ी हुई और विजयी नरेश ने इस सम्राट को मात्र एक कौपीन बाँधकर देश से बाहर निकाल दिया है। इतना ही नही, अपितु समस्त नगर मे यह ढ़िढोरा भी पिटवा दिया है कि इस निर्वासित राजा को जो कोई भी शरण देगा अथवा किसी प्रकार से उसकी सहायता करेगा। ऐसे व्यक्ति को कड़ी सजा दी जायेगी।
अब यह राजा देश से बहिष्कृत किये जाने पर स्थान-स्थान पर भटकने लगा। भटकते-भटकते दोपहर होने को आई। ग्रीष्मऋतु अपने दलबल सहित पूर्णरूपेण जगती पर अधिशासन कर रही थी। यह राजा सिर से पाँव तक नग्न होने के कारण झुलसता जा रहा था और भूख प्यास भी इसे व्याकुल कर रही थी। विजयी राजा के भय से कोई भी इस भिखारी नृप की सहायता चाहते हुए भी न कर सकता था।
विधना के खेल, कल तक जो इतने बड़े देश का सम्राट अधिपति था। जिसके आँख के एक ही इशारे पर ही लोग दौड़े आते थे। छत्तीस प्रकार के व्यंजन का जो भोजन करता था। अब वही सम्राट टुकड़ो-टुकड़ो को तरस रहा है। सूर्य की प्रचण्ड धूप व असहनीय लू से बचने के लिए कोई वस्त्र या छाया भी उसे उपलब्ध न हो रही थी। वही राजा जो स्वयं लाखो जनों का संरक्षण कर्ता (पालन-पोषण करने वाला) था। आज वही नरेश केवल अपनी उदरपूर्ति हेतु एक सूखी रोटी का टूक पाने के लिए दर-ब-दर डोल रहा है। बहुत भटकने पर भी उसे एक रोटी का टुकड़ा प्राप्त न हुआ।
इसी तरह छुधातुर हुए राजा को तीन दिन हो गये। चौथे दिन दैवयोग से वह एक ऐसे स्थान पर जा पहुँचा जहाँ पर भिखारियो को भोजन प्राप्त होता था। मांगने वालो को चिकनी खिचड़ी दी जा जाती थी। लेकिन भाग्य-चक्र कहिये अथवा विधाता का खेल। राजा वहाँ पर उस समय पहुँचा जब कि लंगर बट चुका था और द्वार भी बंद हो गया था। अतएव राजा वहाँ भी भोजन पाने से वंचित रहा। उसने लंगर के कर्मचारीयो के आगे बहुत गिड़गिड़ाकर आर्त्त स्वर मे विनय कि की वह चार दिनो से भूखा है इस कृपया कर उसे बर्तन की खुरचन ही दे दिया जाए।
कर्मचारियो ने पहले तो उसकी बात पर विशेष ध्यान न दिया लेकिन जब वह जोर-जोर से रोने लगा तब उन लोगो ने बर्तनों मे से खुरचन उतार कर एक ठीकरे मे डाल कर उसके हवाले कर दी। छुधातुर होने के नाते भिखारी राजा के हाथ काँप रहे थे फिर भी जैसे-तैसे साहस बटोर कर उसने खिचड़ी वाला ठीकरा सँभाल लिया और एक तरफ बैठ कर खाने के लिए चल दिया। इतने मे ही दो बैल लड़ते-लड़ते उसी ओर आ निकले जिधर यह राजा बैठा हुआ था। उनका धक्का लगने से वह ठीकरा धड़ाम से नीचे गिर पड़ा। जिससे सारी खिचड़ी मिटटी मे मिल गई। यह देखकर भिखारी राजा के नेत्रो के आगे अन्धेरा छा गया। वह भूख से व्याकुल तो पहले ही हो रहा था। अब हाथ मे आया हुआ खिचड़ी का खुरचन भी छीन लिया गया जिससे वह अत्यधिक दुःखी हो उठा और भूख के मारे ढ़ाहे भरने लगा। परिणाम यह हुआ कि चीत्कारों की आवाज राजा साहब के मुँह से निद्रावस्था मे ही निकल गई। जिसे सुनकर समस्त नौकर-चाकर दौड़ कर राजा साहब के पास यह देखने के लिए एकत्रित हो गये कि अक्समात् उनके मालिक को किस कष्ट ने आ घेरा ? राजा साहब का शरीर पसीने से तर-ब-तर हो रहा था तथा उनके अंग-प्रत्यंग मारे भय से काँपे जा रहे थे।
उसी समय राजा साहब की भी नींद से आँख खुली।उन्होने क्या देखा कि वह तो अपने राज-प्रसाद मे उसी सुकोमल शय्या पर विश्राम कर रहे है तथा समस्त कर्मचारी हाथ बाँधे, सिर झुकाये सेवा मे उपस्थित है। शयन-कक्ष नाना प्रकार के सामानों से पूर्ववत् अलंकृत हुआ सुशोभित है। यह सब देखकर राजा साहब को विश्वास हो आया कि यह दृश्य तो मैंने स्वप्न मे ही देखा है। ऐसा विचार कर उन्होने अपने हदय को स्वयं ही ढ़ाढस बंधाया।
इधर नौकर-चाकर राजा साहब के चीत्कार करने पर घबराये जा रहे थे तथा सभी सेवक करने मे तत्पर थे – कोई पंखा करने लगा, कोई पाँव दबाने लगा। राजा साहब के नयनों के आगे ये ही भयावह दृश्य उन्हे आश्चर्यचकित किये जा रहा था कि मै अभी एक क्षण पूर्व नंगे सिर व नंगे पाँव धूप मे झुलसा जा रहा था और भूख-प्यास ने मुझे व्याकुल किया हुआ था। आहोजारी करके भीख मे मांगी हुई खिचड़ी की खुरचन भी ठीकरा टूट जाने के कारण मिटटी मे गिरकर धूल रूप बन चुकी थी। परन्तु एक ही क्षण के बाद ही वह भिखारी से पुनः स्वयं को सम्राट के रूप मे देख रहे थे। इन दोनो अवस्थाओ पर विचार कर राजा साहब बहुत असमंजस मे पड़ गये की इन दोनों विपरीत दशाओ मे कौन सी अवस्था सच्ची है ?
अब राजा साहब मन मे सोचने लगे कि भिखारी बनने की घटना भी उन्होने अपनी आँखो से देखी है और स्वप्न में भी उनकी चीखें भी अवश्य निकली है। जिन्हे सुनकर नौकर-चाकर दौड़े आए है। अब जाग्रतावस्था मे आने पर मै स्वयं को सम्राट के रूप मे ही देख रहा हुँ। दोनों दृश्य मैंने स्वयं ही अपनी आँखो से देखे है। अत्यधिक विचार-विमर्श करने पर राजा साहब ने सोचा कि दोनों घटनाओ मे से कौन सी घटना सत्य होगी।
इस प्रकार स्वप्न वाली घटना के कारण राजा साहब के मस्तिष्क मे खलबली सी मची हुई थी। सो इस बात का निर्णय कराने के लिए दूसरे दिन राजा साहब ने एक सभा आयोजित कराई। इसमे बड़े-बड़े विद्वान पंडित और मन्त्रि-मण्डल को निमन्त्रित किया गया। जब सभा बैठ गई तब राजा साहब ने सबके समक्ष अपनी रात वाली घटना का पूर्ण विशद वृत्तान्त न सुन कर केवल संक्षिप्त रूप मे छोटा सा प्रश्न उनके सामने रखा कि ‘यह सत्य कि वह सत्य ?’
सभासदो को इस प्रश्न के रहस्य का कुछ ज्ञान न था जो कुछ स्वप्न मे राजा साहब के साथ बीता था। अपरिचित होने के नाते यह अजीब सा प्रश्न सुनकर सभी दंग रह गये और आश्चर्य चकित हो एक-दूसरे का मुँह ताकने लगे। जब कुछ समय तक सभी विद्वान व मन्त्री इस प्रश्न का समाधान न कर सके तो इससे राजा साहब को उन सब पर क्रोध आ आया – वे रूष्ट होकर सबके प्रति कहने लगे – यदि आप सब लोग मेरे इस प्रश्न का उत्तर देने मे असफल रहे तो मै आप सबको अपनी-अपनी नौकरी से हटा दूँगा।
यह सुनकर प्रधानमंत्री ने जो कि वृद्ध और बुद्धिमान था खड़े होकर करबद्ध प्रार्थना की – महाराज! हमें इस प्रश्न पर विचारने के लिए कुछ समय दिया जाए। मंत्री के कहने पर राजा साहब ने स्वीकार कर लिया और दो दिन का समय इस बात पर विचार करने के लिए दे दिया। दो दिन तक सभी विद्वान पण्डित व मन्त्री जो-जो उस समय सभा मे सम्मिलित हुए थे। सबने इसी विषय पर बहुत सिर मारा तथा अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार उस समस्या का विश्लेषण किया और अपने निर्णयो से सन्तुष्ट होकर कहने लगे कि कल हम राजसभा मे अपने बुद्धि-कौशल द्वारा राजा साहब के प्रश्न का समुचित उत्तर देकर उनकी प्रसन्नता के पात्र बनेगे।
दो बीत जाने के बाद पुनः राजसभा लगी। तब राजा साहब ने अपना प्रश्न दोहराकर उसका उत्तर पाना चाहा। कुछ एक मन्त्रियों ने राजा साहब के पूछने पर अपनी बुद्धि अनुसार जो प्रत्युत्तर दिए वे इस प्रकार है –
एक मंत्री को राजकर्मचारियों द्वारा एक ऐसे अभियोग (मुकदमे) की घटना के सम्बन्ध मे विदित हुआ कि दो पार्टियो ने एक-दूसरे के विपरीत बयान दिए थे। इस मन्त्री ने यह सोचा कि राजा साहब का प्रश्न कदाचित् इसी मुकदमे के विषय मे ही है। इसलिए मंत्री ने फाइल को उलट-पलट कर अच्छी प्रकार निरीक्षण करके अपने विचार दृढ़ कर लिये कि अमुक गवाह सच्चा है। चुनाँचे इस मन्त्री ने राजा साहब के समक्ष अपने यही विचार प्रकट किये। राजा साहब उसका यह उत्तर सुनकर कुछ मुसकरा दिये, फिर त्यौरी चढ़ा कर बोले कि ‘आपका उत्तर अशुद्ध है।’
इसके बाद राजा साहब ने दूसरो की और उन्मुख हो उत्तर पाने की इच्छा प्रकट की। इस मन्त्री ने सोचा कि खाजा साहब के सिर पर श्वेत बाल आ चुके है इसलिए वे पूछना चाहते है कि इनकी जवानी का जमाना सच्चा था कि आने वाले बुढ़ापे का जमाना सच्चा होगा। इसी विचार से मन्त्री ने अपने इस विचार को प्रकट करते हुए सम्राट से कहा – महाराज! यौवन काल मे जवानी का जमाना सच्चा था और बुढ़ापे मे यह जमाना भी सच्चा ही है। एक के बाद दुसरे का आना अनिवार्य है। जैसे किसी कवि ने सत्य ही कहा है –
।। शेअर ।।
पीरी मे कूच हुस्न जवानी का कर गया ।
आई खिज़ा बहार का मौसम गुज़र गया ।।
राजा साहब यह उत्तर पाकर हँसे और कहने लगे कि पहले मंत्री के उत्तर की अपेक्षा यह उत्तर उत्तम है लेकिन अभी तक हमारे द्वारा किये गए प्रश्न का उचित उत्तर प्राप्त न हुआ।
इस पर तीसरे मंत्री ने सोचा कि राजा साहब का कदाचित यह प्रयोजन है कि यह जिन्दगी का जमाना सच्चा है या मौत का आना सच्चा है। इसलिए इस मंत्री ने यही विचार प्रस्तुत करते हुए कहा – महाराज! मृत्यु का आना सच्चा है। अपनी बात का क्रम न तोड़ते हुए मंत्री कहने लगा कि मानव मात्र का मृत्यु आना अनिवार्य है। इसलिए इन्सान को सावधान रहकर अपने मनुष्योचित उददेश्य को कदापि न भूलना चाहिए तथा इसको पूरा करने के लिए सदैव प्रत्यनशील बने रहना मनुष्य का कर्त्तव्य है। अन्यथा अन्तिम समय सिवाय पछताने के कुछ हाथ नही लगेगा। अतएव जीवन काल मे ही अपने जन्म का पूरा-पूरा लाभ उठा लेना चाहिए। जैसे कहा भी है –
।। शेअर ।।
ग़र लाख वर्ष जिये तो फिर मरना है ।
पैमाना उमर का एक दिन भरना है ।।
हाँ, तोशाऐ आख़रियत मुहैय्या कर ले ।
गाफिल ! तुझे दुनिया से सफर करना है ।।
परन्तु इस उत्तर से भी राजा साहब को पूरा आश्वासन न मिला।
राजा साहब के मन्त्रियो मे से एक वृद्ध मन्त्री जो साधु प्रकृति वाला ईश्वर परायण था। उसने दो दिन के अवकाश मे घर जाकर एकान्त स्थान मे बैठकर बड़ी नम्रता से मालिक के दरबार मे प्रार्थना करते हुए कहा – हे प्रभु ! राजा साहब का यह प्रश्न एक पहेली के रूप मे हमारे सामने आया है। अपनी बुद्धि द्वारा इस प्रश्न का उत्तर ज्ञात कर सकना अति दुष्कर है। इसलिए आप ही करूणा करके हमारी बुद्धि मे ऐसी शक्ति प्रदान किजिए जिससे हम इस प्रश्न के गूढ़ रहस्य को समझ कर उचित उत्तर दे सके। प्रार्थना की समाप्ति के पश्चात् अकस्मात् राजा साहब का एक कर्मचारी वहाँ आ पहुँचा। बातो ही बातो मे उसने कहा कि कल राजा साहब निद्रावस्था मे ही बहुत जोर-जोर से चीत्कार करने लगे। उस समय उसका बदन पसीने से तर-ब-तर होकर थर-थर काँप रहा था।
यह बात सुनते ही वह प्रभु-भक्त मन्त्री राजा के प्रश्न का यथार्थ तात्पर्य समझ गया तथा वह भगवान का लाख-लाख धन्यवाद करते हुए उसकी स्तुति करने लगा – ‘हे दयालु पिता! कितनी अपार महिमा है आपकी व कितनी करूणा है आपकी अपने भक्तजनों पर ! जो भी आपके चरणों मे सच्चे दिल से प्रार्थना करता है उसे आप शीघ्र ही स्वीकार कर लेते है। मै किस वाणी से ऐ प्रभु ! आपका धन्यवाद करूँ। अभी ही मैने आपके दरबार में प्रार्थना की थी और आपने तत्क्षण ही विनय को स्वीकार कर लिया। भगवन! असीम उपकार है आपके, जिनका वर्णन नही किया जा सकता।’ अन्ततः वह शाही नौकर धार्मिक संत्सग आदि कि शुभ वार्त्ता करने के उपरान्त राजमहल मे लौट आया।
इधर अब यह मंत्री राजा साहब द्वारा किये गए प्रश्न का उत्तर पा चुका था तथा उसको सम्राट के समक्ष प्रस्तुत करने के लिए भीतर से उत्सुक हो रहा था। वह दरबार मे उपस्थित हुआ। राजसभा मे जब अन्य कोई उत्तर देने के लिए न उठा तब यही वृद्ध मन्त्री उठा और कहने लगा – महाराज! मै आपके प्रश्न का उत्तर देना चाहता हुँ। आप आज्ञा प्रदान करे तो मै विनय करूँ।
इस पर राजा साहब ने स्वीकृति देते हुए कहा – हाँ! हाँ!! बताओ यह सत्य है कि वह सत्य है ?
तब मन्त्री ने हाथ बाँधकर प्रार्थना कि – हुजूर! न यह सत्य है और न वह सत्य। दोनों मे कोई अन्तर नही। आपने जो कुछ स्वप्न मे देखा और जिसके कारण आपको अत्यधिक कष्ट हुआ है वह भी सत्य नही था क्योकि अब वह स्थिति आपके समक्ष नही है तथा इस समय हुजूर को किसी प्रकार का कष्ट भी नही हो रहा है। अब प्रश्न यह है कि यह सत्य है या नही ? विचार किया जाए तो वास्तविकता यह है कि संसार ही स्वप्न तुल्य है। हाँ, यह स्वप्न कुछ लम्बा अवश्य है परन्तु अन्त मे नष्ट इसने भी हो जाना है।
राजा साहब मन्त्री के इस उत्तर को सुनकर अति प्रफुल्लित हुए और कहने लगे – शाबाश है आपकी अनूठी प्रतिभा पर ! इसके प्रतिफल (बदले) मे आपको बहुमूल्य पुरस्कार दिया जायेगा क्योकि आपने इन सब लोगों को व स्वयं को अपने बुद्धि-कौशल द्वारा मिलने वाले दण्ड से बचा लिया है परन्तु यह तो बताओ कि आपको यह उत्तर किस प्रकार सूझा ?
तब प्रत्युत्तर मे मन्त्री ने निवेदन किया – महाराज! मै तो एक अल्पज्ञ मनुष्य हुँ अर्थात् जो बाते स्पष्ट हो उनको भी नही समझ सकता तो भला ऐसे गूढ़ प्रश्न को समझ सकने में किस प्रकार सफल हो सकता था ? यह तो मेरे मालिक परमेश्वर की असीम दया है मुझ पर कि जिन्होने मेरी विनय को स्वीकार कर प्रश्न का समाधान करा दिया। मै तो उस दयालु मालिक की दया का अति कृतज्ञ हुँ। इतना कहकर उस भक्त मन्त्री ने दो दिन के अवकाश मे भगवान् के चरणों मे प्रार्थना करने तथा उसके बाद राज कर्मचारी के पहुँचने और उस द्वारा राजा साहब का स्वप्न मे डरने का पूरा-पूरा वृत्तान्त कह सुनाया।
यह सुनकर राजा साहब एवं समस्त मन्त्री-मण्डल चकित रह गया और सबने यही सोचा –
।। शेअर ।।
होता है जिन पै फज़ल, उस रबै करीम का ।
मौजे समूम बनती है, झोका नसीम का ।।
जिनकी निगाह है, उस कर्मकारे साज पर ।
सेहरा चमक बनेगा, वो है मेहरबाँ अगर ।।
तात्पर्य यह है कि इस संसार को सत्पुरूषो ने स्वप्नवत् बताया है। जिस प्रकार स्वप्न देखते समय मनुष्य उसको सत्य मानता है लेकिन जाग्रत होने पर वह सब मिथ्या और झूठा प्रतीत होता है। ठीक इसी प्रकार से जीव के ज्ञान-चक्षु खुल गये है तथा जिसने भजनाभ्यास की कमाई से अपनी अन्तर्दृष्टि उघाड़ ली है। उसको यह संसार स्वप्न सदृश प्रतीत होता है। परन्तु जब तक मनुष्य के मन मे मोह व अज्ञान का अन्धेरा होता है तब तक यह मनुष्य इस संसार की वास्तविकता को ठीक तरह से नही समझ सकता।
जैसे कि जब अर्जुन महाभारत के युद्ध के शुरू होने से पूर्व रिश्तेदारों के सम्बन्ध को सत्य मान बैठा और युद्ध क्षेत्र मे कर्त्तव्य की और पीठ दे दी तब भगवान श्री कृष्ण जी उसको सत्यता का बोध कराने के लिए गीता के ग्यारहवे अध्याय श्लोक आठ मे यो कथन करते है –
ऐ अर्जुन! इन चर्म नेत्रो (बाहर की आँखो) से तू मेरे असली स्वरूप को नही देख सकता। इसलिए मै तुझे ज्ञान-चक्षु (तिसरी आँख) प्रदान करता हूँ।
अनुभवी नेत्र का अभिप्राय शिव-नेत्र, ज्ञान-चक्षु व अन्तर्दृष्टि से है। जब तक यह आँख नही खुलती तब तक मनुष्य इस संसार के सम्बन्ध, माया व माया के मिथ्या पदार्थों को सत्य मानता है। मगर जब नाम व शब्द के अभ्यास से जीव की अन्तर्दृष्टि खुल जाती है तब इस जगत् को व इसकी समस्त रचना को स्वप्न सदृश समझता है। जिसकी कोई वास्तविकता नही होती। यह सच्चा नाम पूर्ण तत्वदर्शी महापुरूषो की शरण मे जाने से ही जीव प्राप्त कर सकता है।