इस स्वार्थमय संसार मे सब रिश्ते-नाते अपने मतलब के ही साथी है । स्त्री-पुत्र, भाई-बन्धु, माता-पिता सब स्वार्थसिद्धि के लिए ही प्यार करते है । जब इनका स्वार्थ पूरा हो जाता है तो सब दूसरी तरफ आँखे फेर लेते है । जगत मे मुहब्बत या प्यार का जितना भी व्यावहार देखने मे आता है उन सब के पीछे स्वार्थ छिपा होता है । जब तक मनुष्य का स्वास्थ्य ठीक है और धन-दौलत इसके पास है तब तक अपने स्वार्थ हेतु सब सम्बन्धी व परिचित जन उसके आगे पीछे कठपुतली की न्याई फिरते है । मगर जब वे सब अधिकार उसके हाथ से निकल जाते है तो वे ही सम्बन्धी अथवा अभिन्न मित्र नजदीक भी नही फटकते तथा यहाँ तक की सहानुभूति के बदले रूखाई का व्यवहार करते है । इस प्रकार की स्वार्थपरता को देखकर सन्त महात्माओ ने ऊँची आवाज मे जनसाधारण को समझाते हुए ये पक्तियाँ उच्चारण की है
adhyatam gyan |
अर्थ – इस गरज वाली दुनिया मे मैने ऐसा कोई नही देखा जो निस्वार्थी हो ।
इसलिए सन्त महापुरूष जीवों को समझाते है कि ऐ जीव ! तू सच्चे दिल से उस परमपिता परमात्मा का सहारा ले जो इस लोक मे तेरी रक्षा करे और मरने के बाद तुझ से यमराज लेखा न मांग सके ।
ऐसे सज्जन समय के सन्त-सतगुरू ही हुआ करते है । नीचे लिखे दृष्टान्त में यह दर्शाया गया है कि एक गुरू भक्त बालक ने माता-पिता व राजा की स्वार्थपरता को देखकर सच्चे हदय से अपने इष्टदेव का सहारा लिया तब उन्होने अपने सेवक की गुप्त रूप से रक्षा की । जिससे वह मृत्यु से बचकर राज्यधिकारी बन गया । पूरा प्रंसग इस प्रकार है –
कोई एक राजा कई राज्यो का अधिपति था । उसकी प्रतिष्ठा की धाक दूर-दूर देशो तक जमी हुई थी । दुनिया मे ऐसी कौन सी चीज थी जो उसके पास न हो अर्थात् किसी प्रकार की चल-अचल सम्पत्ति का उसके पास न था, अभाव था तो केवल ये ही जो कि प्रायः संसारी मनुष्य को होता रहता है, वह था सन्तान का न होना । राजा ने सन्तान प्राप्ति के लिए कई यत्न किए जप, तप, यज्ञ आदि बहुत कुछ किया लेकिन परिणामस्वरूप निराशा ही हाथ लगी । राजा का शरीर वृद्धावस्था की और बढता जा रहा था तब उसकी आँखो के आगे अंधेरा सा छाने लगा कि मेरी मृत्यु हो जाने के पश्चात इतने राज्य का अधिकारी कौन होगा ? इसलिए उसने पुनः कुछ एक विख्यात ज्योतिषियो को बुलाया और उनसे कहा – कि हमने अपनी तरफ से सन्तान प्राप्ति के लिए बहुत प्रयास किये परन्तु सफलता फिर भी प्राप्त न हुई । अस्तु अब आप ऐसा कोई उपाय बताओ जिससे यह मेरी सूनी गोद और महल खुशियो से भर जाए । अपने इस विस्तृत राज्य के उत्तराधिकारी को पाकर मुझे हार्दिक सन्तुष्टि हो सके ।
राजा का यह प्रस्ताव सुनकर उन ज्योतिषियो ने कहा – महाराज ! आप हमे इस विषय पर विचार करने के लिए कुछ अवकाश प्रदान किजिये ।
तब राजा ने कहा – अवश्य, आप जितना चाहे अवकाश ले ले ।
दो-चार दिन परस्पर विचार-विमर्श करके सब ज्योतिषी दरबार मे आये और आशान्वित शब्दो से धैर्य बँधाते हुए राजा साहब से कहने लगे – महाराज! आप चिन्ता न करे, हमे एक उपाय सूझा है वो यह कि देवी के समक्ष किसी नौजवान लड़के की बलि चढ़ावे । हमे पूर्णतया विश्वास है कि ऐसा करने से आपको हार्दिक प्रसन्नता होगी तथा आपका नीरव आँगन बालक की मोहक किलकारियो से शीघ्र ही चहक उठेगा ।
चूंकि मनुष्यमात्र का जीवन आशा की खूँटी पर टंगा हुआ है । सो निराश राजा ने सोचा कदाचित् ऐसा करने से मेरी चिर अभिलाषा पूर्णता को प्राप्त हो जाए । ऐसा सोच राजा ने उसी समय प्रधानमंत्री को यह आदेश दिया कि – मन्त्री जी! आप एक नवयुवक को शीघ्रातिशीघ्र ढूँढ लाओ ।
जो भी माता-पिता बलि हेतु अपना लड़का दे देवे तो फिर तुम उन्हे हमारी तरफ से (काफी मात्रा मे धनराशि मंत्री के हाथ मे देते हुए) यह पुरूस्कार रूप मे दे देना ।
राजा का आदेश पाकर कुछ कर्मचारी व मन्त्री युवक की खोज मे निकल पड़े । काफी देर खोज करने के उपरान्त भी उन्हे सफलता प्राप्त न हुई मोह-ममता के बंधन मे जकड़े होने से कौन अपने जिगर के टुकड़े को नाहक बलि हेतु देता ? लेकिन फिर भी उन्होने साहस नही छोड़ा । निरन्तर खोज करते ही रहे – अन्त मे उन्हे नगर से बाहर कुछ दूरी पर टूटा-फूटा मकान दिखाई दिया । वे उसमे प्रविष्ट हुए – क्या देखा, मानो समूची दरिद्रता का यहीं निवास स्थान हो । उनके घर की स्थिति को देखने से ऐसा प्रतीत होता था कि जैसे उनके घर मे कई-कई दिन तक तवा भी गर्म न होता हो । अधेड़ आयु के स्त्री पुरूष और निकट ही उनके नौजवान लड़का बैठा हुआ था । माँ-बाप के चेहरे पर दरिद्रता की चिन्तामयी रेखाये खिंची हुई थी और लड़का जो कि सौम्यता का सजीव रूप था उसके चौड़े भाल पर से धैर्य, भक्ति और सौज्यनता की किरणे फूटती हुई स्पष्ट दिख रही थी ।
कर्मचारियो ने उन्हे राजा का यह सन्देश सुनाया कि – हमारे देश सम्राट ने पुत्र प्राप्ति के लिए एक नवयुवक की बलि चढ़ानी है और उसके लिए उन्होने काफी इनाम निर्धारित किया है कि जो भी अपना लड़का बलि हेतु देगा उसे राज्यकोष से अतुल धनराशि इनाम रूप मे दी जायेगी ।
माँ-बाप ने जब धन के बारे मे सुना तो उनके मन मे लालच आ गया । सोचने लगे – मारे दरिद्रता के कितने-कितने दिन उपवासो मे बीत जाते है । दूसरा हमने अथवा पुत्र ने एक न एक दिन तो बिछुड़ना है ही इसके अतिरिक्त ये भी हो सकता है कि यदि हम प्रसन्नतापूर्वक पुत्र को न दे तो राजा साहब इसे जबरन भी हमसे ले सकते है साथ ही एक बात यह भी है कि धन पाकर हमारा शेष जीवन सुखरूप बन जायेगा । इतना सब सोचकर उन्होने अपने पुत्र की बलि हेतु सम्मति दे दी । कर्मचारियो ने राजा द्वारा दी गई धनराशि उन्हे सौंपी और लड़के को लेकर महल की आये । लड़का भी बिना आनाकानी किए उनके साथ चल दिया ।
यह लड़का जिसका की आगे प्रंसग चलना है किन्ही पूर्ण ब्रह्मनेष्ठी गुरू का शिष्य था । यह अत्यन्त संस्कारी व उत्तम विचार रखने वाला था । इसमे भक्ति के भाव कूट-कूट कर भरे हुए थे । कर्मचारियो के साथ चलते हुए अपने मन मे यह सोचता जा रहा था – अहा, कितना स्वार्थमय जगत् है कि माँ-बाप ने थोड़े से अस्थायी धन के लिए आज मेरी कुछ प्रवाह न कर मुझे बलि हेतु इन्हें सौंप दिया है । यद्यपि लड़का इस बात से परिचित था कि आगे चलकर मेरा सिर धड़ से विलग होना है फिर भी वह घबराया नही और हदय मे अपने इष्टदेव को स्मरण करता हुआ खुशी खुशी उनके साथ देवी के मन्दिर मे जा पहुँचा ।
नवयुवक के आने का सन्देश राजदरबार मे पहुँचाया गया । यह बात नगर मे फैल गई और काफी सख्या मे अन्य लोग भी वहाँ एकत्रित हो गये । इधर मन्दिर के बाहर एक चबूतरे पर वह युवक शान्त चित्त और भगवद् स्मरण मे लीन बैठा है । वध करने वाले जल्लादों ने लड़के की यह विचित्र दशा देखी तो उन्होने लड़के से पूछा – क्या तुझे मौत का भय नही…. क्योकि अन्य जो यहाँ बलि के लिये लाये जाते है वे मृत्यु के प्राप्त हो जाने वाले दुःखो को याद कर रोते और चिल्लाते है परन्तु तू तो दुःखी होने की अपेक्षा प्रसन्न वन्दन है …. बता ! तेरी अन्तिम इच्छा क्या है ? ताकी उसे पूरा किया जावे ।
लेकिन यह लड़का तो अपनी ही दिव्य मस्ती मे लीन था । उनके बार-बार पूछने पर भी यह कुछ न बोला । लड़के के द्वारा कोई प्रत्युत्तर न देने पर दर्शको ने अपने मन मे यह अनुमान लगाया कि सम्भव है यह लड़का बहरा और गूँगा हो । इतने मे राजा साहब भी अपने मंत्रियो के साथ आ पहुँचे । जल्लादों से उसके विषय मे विचित्र बात सुनकर राजा ने स्वयं लड़के से पूछा – ‘बता, तेरी अन्तिम इच्छा क्या है ? हम उसे इसी समय पूरा करेगे । इसमे विलम्ब न लगा चूँकि तेरे जीवन का टिमटिमाता चिराग अभी बुझने ही वाला है ।’
लड़के की और से अब भी वही मूक उत्तर ही मिला । तब राजा साहब ने पुनः पूछा – क्या तूने मृत्यु के भय से मौन धारण किया हुआ है अथवा तू बोल ही नही सकता ? इस पर भी लड़का चूप ही रहा और मूक अवस्था मे ही उसने मिट्टी की तीन ढ़ेरियां बनाई । पुनः दो ढेरियों को तो तोड़ दिया तथा एक ढेरी ज्यों की त्यों बनी रही । कुछ क्षणोपरान्त राजा ने तीसरी बार बलपूर्वक उसका कन्धा हिलाते हुए कहा – तुने हमारी बात का उत्तर न देकर बार-बार तीन ढेरियो को बनाया जिसमे दो को तोड़ दिया और तीसरी को न तोड़ा इसमे क्या रहस्य है, हमे बता ?
तब लड़का कहने लगा – ‘महाराज ! आप मेरी बात ध्यान देकर सुनिये – इन ढेरियो को बनाने व गिराने मे भी एक गंभीर रहस्य निहित है ।’ इतना कहकर वह फिर चुप हो गया ।
रहस्य निहित की बात सुनकर राजा को जिज्ञासा हो आई – उन्होने बालक से कहा – ‘तू हमे सत्य-सत्य बता!’
तब उस गुरूभक्त बालक ने निर्भयता व सतर्कता से उत्तर देते हुए इस प्रकार कहा – महाराज ! प्रत्येक प्राणी जन्मावस्था से लेकर मरणावस्था तक तीन की छत्रछाया मे रहता है । प्रथम माता पिता का सहारा होता है लेकिन वह भी अस्थायी है जिनकी स्वार्थपरता आज मैने आँखो से देख ली कि मेरे माता पिता का मुझसे कितना हार्दिक प्यार है । मात्र तुच्छ धन की प्राप्ति हेतु उन्होने मेरा वध तक करवाना स्वीकार कर लिया । प्रथम ढेरी को तोड़ने का यही रहस्य है कि जगत् मे माता पिता का प्यार झूठा और अन्त मे दुःख देने वाला है ।
उसके पश्चात दूसरा सहारा है देश के सम्राट का जो ईश्वर सदृश प्रजा की पालना करता है तथा समस्त प्रजा उसकी सन्तानवत् होती है लेकिन ‘हाथ कंगन को आरसी क्या ?’ अर्थात् मैने अपने जीवन मे यह घटना भी प्रत्यक्ष देख ली है कि आपने अपनी तनिक सी खुशी की प्राप्ति के लिए एक निरपराध बालक की बलि देनी तक स्वीकार कर ली । दूसरी ढ़ेरी मिटाने का यही विशेष प्रयोजन है । प्रजा के जनक (पिता) होते हुए भी आपने अपने स्वार्थ को ही देखा । इस नाते राजा का सहारा भी झूठा ही सिद्ध हुआ । इतना कहकर बालक चुप हो गया ।
बालक की इन ज्ञान भरी बातो सुनकर राजा साहब के अन्तस्तल पर गहरा प्रभाव पड़ा । तब राजा ने उससे कहा कि तुम मुझे तीसरी ढेरी के न तोड़ने का कारण बताओ । क्योंकि तुम साधारण बुद्धि वाले नही अपितु प्रखर प्रतिभा रखने वाले सज्जन प्रतीत होते हो ।
यह सुन उस नवयुवक ने इन निम्नलिखित पंक्तियो को उच्चारण कर तीसरी ढ़ेरी को न तोड़ने का रहस्य प्रकट करते हुए कहा –
।। दोहा ।।
बेवफा है उकरबा इनसे नही होगी वफा ।
ऐ हकीकी मेहरबान कोई नही तेरे सिवा ।।
महाराज! मेरी तीसरी ढेरी को न तोडने का कारण यह है कि इस संसार मे जहां माता पिता, बन्धु-बान्धवो तथा देश के सम्राट तक का सहारा अस्थिर है तो इसके दूसरे पहलू मे स्वयं यही पारब्रह्म परमेश्वर सन्त रूप मे समयानुसार इस अवनि पर अवतरित होते है । उन्ही की छ्त्र छाया अचल व शाश्वत होती है । मेरे भी अहोभाग्य है कि मैने ऐसे पूर्ण महापुरूषो की चरण-शरण ग्रहण की हुई है । इसी कारण ही मुझे यहां किसी प्रकार का भय प्रतीत नही हो रहा । चूंकि मेरे सिर पर तो पूर्ण सतगुरू का हाथ है । वह मेरे इस लोक भी सहायक है और परलोक मे भी । इसी कारण मैने अपने जीवन के सच्चे साथी का सहारा जानकर इस तीसरी ढेरी को नही मिटाया । ऐसे सन्त सदगुरू की शरणागति पाकर जीव सुखरूप हो उज्जवल मुख रहता है अर्थात् उसे लोक में भी किसी प्रकार की व्याधियाँ नही सताती है और मृत्यु के बाद भी वह मालिक के निजधाम मे निवास पाता है । अतएव महाराज! अब आप ही बताइये कि मै ऐसे समय मे फिर भय क्यो खाऊँ ? जबकि मेरे सिर पर पूरे सदगुरू का हाथ है और ‘नाम अखिल अघ पुँज नसावन’ की उक्ति का समर्थन करने वाला उनका पवित्र नाम भी मेरे साथ है । मरने से तो वे जन भयभीत होते है जिनका कोई सहारा नही है । जैसे श्री कबीर साहिब जी की वाणी से स्पष्ट है
।। दोहा ।।
युवक के मुख से सारयुक्त बातें सुनकर राजा के हदय दर्पण से मोह-माया के आच्छादित मल विक्षेप आवरण उठ गया तथा प्रजा जन भी गदगद कण्ठ से बालक की प्रशंसा करने लगे । राजा साहब ने मन मे विचार किया कि इस गरीब बालक के यदि मै प्राण हर भी लूँ तो हो सकता है मुझे सन्तान की प्राप्ति भी न हो और व्यर्थ ही इस भक्त बालक की आत्म-हत्या का पाप भी लगे । ऐसा विचार कर उन्होने जल्लादो और मन्त्रियो को इसकी बलि देने से मना कर दिया । चूँकि अब बुद्धिमान लड़के को पाकर राजा की सन्तान प्राप्ति की इच्छा समाप्त हो चुकी थी तथा इसकी उच्चस्तर की बातों को सुनकर राजा को वैराग्य हो चुका था । तदुपरान्त इस गुरूभक्त बालक को सादर राजमहल मे लिवा लाये । तब राजा ने इसे अपना पुत्र बना लिया । सत्संग वार्त्ता होने के मध्यान्तर राजा ने लड़के से पूछा कि ‘आपने जिन महापुरूषो से इस परा विद्या की शिक्षा अथवा ज्ञान प्राप्त किया है क्या मुझे उनके दर्शन करवा सकते हो?’
तब बालक ने कहा – ‘अवश्य, इसके पश्चात वह गुरू भक्त बालक राजा साहब को अपने गुरूदेव के आश्रम पर ले गया । गुरुदेव ने राजा साहब को अधिकारी जानकर नाम की दीक्षा दी । गुरुभक्त बालक की पावन संगति से अब राजा भी सदगुरू का पूर्ण सेवक बन गया । अब राजा की समस्त वृत्तिया सांसारिक इच्छाओ की ओर से हटकर मालिके-कुल के चरणो मे जुड़ गई थी तथा उनका मन राज्य के कार्य-व्यवहारो में अब विशेष रूप से न लगता था । अन्ततः उसी गुरूभक्त बालक को अपने विस्तृत राज्य का उत्तराधिकारी बनाकर स्वयं राजा साहब भजनाभ्यास हेतु वन मे चले गये ।