‘समर्थ स्वामी रामदास’ अपने समय के पूर्ण सदगुरू और महापुरूष हुए है। उनके शिष्यो मे अम्बादास – श्री कल्याण जी का नाम विशेषतः आता है। इनकी चितवृत्ति आठो पहर सतगुरु के ध्यान व सुमिरण मे जुड़ी रहती थी। इस प्रकार गुरू की संगति एवं समीपता तथा सेवा मे रहकर वे भक्ति के गूढ़े रंग मे रंगे जाने लगे। सतगुरू की प्रसन्नता को ही अपने जीवन का लक्ष्य मान अहर्निश आज्ञा पालन मे तत्पर रहते। अब उनका आत्म-तत्तव का साक्षात्कार कर लेने का समय निकट आ पहुँचा था। यह तो महापुरूष ही जानते है कि कब किस सेवक के सोये हुए भाग्य को जगाकर उसे मालामाल करना है। जब वे बख्शने पर आते है, तो पल भी देर नही करते। देर तभी तक है, जब तक की सेवक सेवा की परीक्षा मे दृढ़ता से सफल नही हो जाता और धैर्य, साहस, सहनशीलता व नम्रता के सदगुणो से सतगुरू की प्रसन्नता का पात्र नही बन जाता।
भक्त अम्बादास जी मे भक्ति के ऐसे ही श्रेष्ठ गुण विद्यमान थे। वैसे तो इन के जीवन मे बहुत सी घटनाएँ है। हम यहाँ केवल एक ही घटना प्रदर्षित कर रहे है कि उनकी सतगुरू के प्रति कुरबानी की भावना कितनी थी –
एक बार आश्रम मे कोई उत्सव मनाया जाता है। जिसके कारण दूर दूर से भक्तों की मण्डलियाँ एकत्रित होकर समर्थ स्वामी रामदास जी के दर्शनो के लिए आई हुई थी। उनके अन्तरंग शिष्य (सदा समीप रहने वाले) भी उत्सव मे सम्मिलित थे। सब प्रेमी अपने अपने कर्त्तव्य के अनुरूप सेवा कार्य मे जुटे हुए थे। उन सब मे सतगुरू की पवित्र सेवा करने की होड़ लगी हुई थी। प्रत्येक के हदय मे यह लालसा उत्पन्न हो गई कि मै सब से बढ़कर सेवा का आदर्श दिखलाऊँ, क्योकि सभी अपने आपको उच्चपद का सेवक कहलाना चाहते थे।
गुरूदेव तो अन्तर्यामी थे। उन्होने सेवकों की भक्ति, दृढ़ता एवं सतगुरू से कितना हार्दिक प्यार है इस बात की परीक्षा लेनी चाही कि देखे तो कौन सा शिष्य कसौटी पर सफल होता है। अतएव उन्होंने एक अनोखी लीला रच डाली।
एक दिन जब कि समस्त सेवक उपस्थित थे, तो आप जोर जोर से इस प्रकार आवाज कर कराहने लगे, मानो अत्यधिक वेदना हो रही हो। यह सब देखकर सब शिष्य मण्डली घबरा गई तथा सभी हाथ बाँध कर खड़े हो गये। पूछ्ने लगे – ‘भगवन्! आपको क्या कष्ट है? मुझे बताने की कृपा करे। ताकि उसका निवारण किया जाये।’ गुरू जी ने फरमाया – ‘वत्सगण! हमारी टाँग मे एक विषैला फोड़ा निकल आया है। जिसके कारण इतना सख्त दर्द हो रहा है।’ इतना कहकर वे फिर मारे दर्द से कराह उठे।
गुरू जी के कष्ट की बात सुनकर सब सेवकों मे उद्विग्नता फैल गई। सभी चिकित्सा का प्रबन्ध करने हेतु भाग दौड़ करने लगे तथा गुरू जी को आराम पहुँचाने के लिए उनके चरणों मे विनय करने लगे – भगवन्! इस फोडे पर कोई दवा लगा दो। कोई कहने लगा पट्टी करवा लीजिए, जिससे यह शान्त हो जायेगा।
इस पर गुरू जी ने फरमाया – ‘प्रेमियो! यह फोड़ा कोई साधारण फोड़ा नही। यह तुम्हारे किसी बाहरी इलाज से ठीक होना वाला नही।’ तब सब ने हाथ जोड़कर विनय – गुरूदेव! आखिर इसकी कोई न कोई चिकित्सा तो होनी ही चाहिए। आप जो आज्ञा करे, वैसा ही प्रबन्ध करने को हम सब आपके तुच्छ सेवक तैयार है। समर्थ स्वामी ने उत्तर दिया – हाँ, इसके लिए केवल एक ही उपाय हो सकता है और उसके करने से हमारा यह रोग तुरन्त मिट जायेगा, परन्तु वह उपाय करना अत्यन्त कठिन है।
यह सुनकर सब सेवक बोले – ‘महाराज! यदि वह उपाय जटिल भी है, तो क्या हुआ। आप केवल आज्ञा करने की कृपा करे। जिस प्रकार भी यह कष्ट जल्दी दूर हो सके, हम अपनी तरफ से किसी प्रकार की भी असावधानी न करेगे, क्योकि हम से आपका यह कष्ट बिल्कुल नही देखा जाता। यदि इसे दूर करने के लिए हमें अपने प्राणो को भी न्यौछावर करना पड़े, तो हम अपने अहोभाग्य समझेगे।’ बस, यही तो बात गुरूदेव उनके मुख से निकलवाना चाहते थे। गुरू जी ने तत्क्षण यह उत्तर दिया – ‘प्रेमियो! इसको ठीक करने का एकमात्र यह उपाय है कि कोई एक इस फोड़े का विषैला मवाद अपने मुँह से चूस ले, ऐसा करने से हमारा दर्द जाता रहेगा। किन्तु दूसरी बात साथ मे यह भी है कि इस फोड़े का विष इतना घातक है कि जो भी प्रेमी इसे चूस लेगा वह तत्क्षण मर जायेगा।’
प्राणों की आहूति देने की बात सुनकर कई प्रेमी एक दूसरे का मुँह ताकने लगे। सब अपने अपने दिल मे घबराए हुए यह सोच रहे थे कि देखे, पहले कौन शूरवीर प्राण देकर इस परीक्षा स्थली मे उतरता है। कई मन मे सोचने लगे कि यह कार्य तो कठिन है। यहाँ तो अब सचमुच ही प्राणों की बलि देनी होगी। यह भला हम से कैसे हो सकेगा? ऊपर से केवल प्रेम प्रेम दर्शाने और मात्र कथनी द्वारा प्राण न्यौछावर करने वाले तो कई होते है, जो कि परीक्षा आने पर मुँह ताकते रहते है एवं असफल हो जाते है। अपने इष्टदेव के कष्ट के लिए कोई विरले ही सच्चे सेवक होते है, जो कि प्रेम की वेदी पर अपना सर्वस्व न्यौछावर करने मे भी नही कूचते।
गुरूदेव के वचन सुनकर सब सेवकों के दिलों मे हलचली सी मच गई। कई तो हिचकिचा रहे थे कि क्या किया जाए? तभी इनमे कल्याण नाम का सेवक आगे बढ़ा। उसने गुरू जी के चरणो मे सिर निवा कर विनती की – प्रभु! इस दुर्भल सेवा का सौभाग्य मुझ दीन-हीन सेवक को कृपा करके बख्शे। यदि मेरे नश्वर प्राणों के बदले मे मेरे गुरूदेव भगवान् का कष्ट दूर होता है, तो इससे बढ़कर मुझे और चाहिए भी क्या? इतना कहते कहते कल्याण जी की आँखो से प्रेमाश्रु टपकने लगे तथा उन्होने सहर्ष गुरुदेव जी को फोड़े पर बंधी पट्टी खोल लेने के लिए नम्र निवेदन किया।
गुरूदेव जी उसका दृढ प्रेम देख तथा उसकी प्रेम भरी वाणी सुनकर हदय मे अत्यन्त हर्षित हुए। उस पर अनुकम्पा भरी दृष्टि डालते हुए प्यार के साथ कहा – ‘बेटा! यदि हम पट्टी खोलते है, तो हमे अत्यन्त वेदना होगी। इसलिए तुम ऐसा करो कि पट्टी के एक सिरे पर से फोडे का काला सा मुँह बाहर निकला हुआ है। तुम उसी से ही चुसना शुरू कर दो।’
प्रेमी भक्त कल्याण जी ने गुरूदेव की आज्ञा शिरोधार्य कर फोड़े के मुँह से अपना मुँह लगा कर चूसना शुरू किया। जैसे ही उसने चूसना आरम्भ किया, उसे अत्यन्त मिठास का अनुभव हुआ अतः वह शीघ्रातिशिघ्र फोड़े पर मुँह चलाने लगा। शेष सभी सेवक निकट खड़े यह दृश्य देख रहे थे। जब वह जल्दी करने लगे तो गुरूदेव जी ने कहा – ‘बेटा! तनिक धीरे-धीरे… चूँकि वेदना बढ़ने लगी है।’ उसने थोड़ी ही देर मे उसको सारा चूस डाला। उनके चूस लेने पर जब गुरू जी ने पट्टी खोलकर अलग फैक दी, तो सब सेवक यह देखकर आश्चर्य के सागर मे डूब गये कि वहाँ तो फोड़े के स्थान पर से एक बड़े से आम की गुठली निकली।
वास्तव में तो गुरूदेव जी ने सेवकों की परीक्षा हेतु एक आम को अपनी टाँग पर रखकर ऊपर से पट्टी बाँध ली थी। यह सब तो उन्होने एकमात्र लीला रचाई थी कि देखे कहने मे तो सभी श्रेष्ठ सेवक कहलाना चाहते है की परीक्षा की कसौटी पर कौन प्रेमी सफल उतरता है? परन्तु सब प्रेमियो की मण्डली मे से केवल कल्याण जी ही अपनी दृढ़ भक्ति व अटूट प्रेम होने के कारण इस खेल मे सर्वप्रथम बाजी जीत कर ले गये। इसके विपरीत कमजोर हदय व डावांडोल विचारों वाले प्रेमियो ने प्राणों को प्यारा समझ इस प्रेम परीक्षा मे पीछे रहे तथा असफलता को प्राप्त किया।
कल्याण जी के उच्च कोटि के दृढ़ प्रेम व वैराग्य को देख समर्थ स्वामी जी महाराज अत्यन्त प्रसन्न हुए तथा उन्होने कल्याण जी की सेवाओ से प्रसन्न हो उन्हे सबसे उत्तम पद प्रदान किया, जिससे वह बाद मे ‘समर्थ कल्याण स्वामी‘ के शुभ नाम से जगत् प्रसिद्ध हुए।