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लुकमान हकीम का अपने मालिक को उपदेश

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      जगत् प्रसिद्ध लुकमान हकीम के सम्बन्ध मे लोकोक्ति प्रचलित है कि बाल्यकाल मे ही इनके माता-पिता ने इन्हें एक धनवान जमींदार के पास बेंच दिया था।
      विशेष – जिस प्रकार आज के युग मे पशुओ का व्यापार होता है, एक बेचता है तो दूसरा व्यक्ति उसे खरीद लेता है। इसी प्रकार उस युग मे मनुष्य के बिकने की प्रथा थी। उन बिकने वाले मनुष्यो को दास (गुलाम) कहा जाता था। उस युग मे दास-प्रथा प्रचलित थी।
      लुकमान का मालिक अत्यन्त कठोर हदय एवं निर्दयी था। वह अहर्निश पाप और बुराई मे लगा रहता था। दया नाम का शब्द तो मानो उसने धारण करना तो दूर, सुना भी न था। धन के नशे मे चूर उसका मालिक हर प्रकार से पाप-कर्म करने मे सदैव रत रहता था। मालिक की कठोर यातनाएं लुकमान को प्रतिदिन सहन करनी पड़ती थी। यद्यपि लुकमान को मालिक के दुराचरण पर विषाद और दुःख तो होता था परन्तु उसको समझाना किसी के वश की बात न थी। कारण यह है कि किसी का उपदेश भी उस पर प्रभाव न डाल पाता था। एक बार अपने मालिक को सन्मार्ग पर लाने के लिए लुकमान को एक सुन्दर युक्ति सूझी।
      लुकमान के विश्वास पर उसके मालिक ने उसकी देखभाल मे कई खेत कर रखे थे। जिसमे अनाज बोने का कार्य वह करवाता था। मालिक ने लुकमान से कहा कि – जाओ! इस बार खेतों में अच्छी से अच्छी गेहूँ बो दो। लुकमान अपने मालिक का आदेश पाकर ‘जी हुजूर! कह कर वहाँ से चल पड़ा और अपने अधीनस्थ नौकरो को जौ बोने के लिए कह दिया। लुकमान के कथनानुसार खेतों मे जौ बो दिये गये। धीरे-धीरे जौ के पौधे खेतों मे लहराने लगे।
      एक दिन लुकमान से मालिक ने पूछा – भाई लुकमान क्या तुमने खेतों मे गेहूँ बो दिया है ?
       लुकमान बोला – जी हुजूर! गेहूँ का फसल तैयार है।
      मालिक बोला – किन्तु यह नौकर तो कुछ और ही कहते है।
      लुकमान ने पूछा – वह क्यो कर ?
      मालिक ने कहा – यह सब कहते है कि लुकमान ने हमें जौ बोने का हुक्म दिया था तो हमने जौ ही बोये है।
      लुकमान ने उत्तर दिया – नही स्वामी! यह सब गलत कहते है। समय आने पर हम गेहूँ ही काटेगे।
      यह सुनकर मालिक को क्रोध आ गया। अतः उसने स्वयं खेतों पर जाकर देखा तो उसे सब खेतों मे जौ ही नजर आये। यह देखकर उसके आश्चर्य की सीमा न रही। मालिक ने क्रुद्ध होकर लुकमान से कहा – अबे नालायक! यह कैसी धृष्टता तुम ने की ?
      लुकमान रोनी सी सूरत बनाकर बोले – हुजूर! इसमे मेरा दोष नही है।
     यह सुनकर मालिक को रोष आ गया – अरे पाजी! हमने गेहूँ बोने को कहा था और तूने जौ बो दिए है। इस पर भी कहता है कि मालिक! मेरा दोष क्या है ?
      लुकमान सरल स्वभाव से बोला – किन्तु हुजूर! यदि जौ बो दिये है तो क्या हर्ज है ? हम लोग इसमे से काटेगे तो गेहूँ ही न ?
      मालिक क्रोध से आग बबूला होकर बोला – क्या वाहियत बकता है ? जौ बोकर भी भला किसी न गेहूँ काटा है भला ?
      लुकमान अब भी पूर्ववत गम्भीर बना हुआ था। उसने कहा – हाँ, श्री मान जी! आप रूष्ट क्यो होते है ? मुझे ऐसी ही आशा है कि हम जौ बो कर गेहूँ ही काटेगे।
      तो इसका अर्थ यह है कि तुम्हारी बुद्धि अब जवाब दे गई है। स्वामी ने लुकमान के सिर पर दो थप्पड़ दे मारे।
      लुकमान ने फिर उत्तर दिया – जहाँ तक मै समझता हूँ, स्वामी! मेरी बुद्धि ठीक ही काम कर रही है। सम्भव है, आप ही भूल रहे है।
      ‘अजीब मूर्ख से पाला पड़ गया है।’ ‘अबे! जौ बोया है और आशा रखता है गेहूँ काटने की!! इससे बढ़कर मूर्खता क्या होगी।’
       श्रीमन् में वही सोंच रहा हूँ जो आप फरमाते है लुकमान ने कहा।
      ‘मै क्या कहता हूँ अरे मूढ़ ?’ जल-भून कर कठोरता से स्वामी ने प्रश्न किया।
      श्रीमन् यदि आप दिन-रात क्रूरता और अन्याय व अधर्म का पक्ष लेते हुए भद्र कहलाने और स्वर्ग प्राप्त करने की अभिलाषा रखते है तो फिर मेरे लिए जौ बो कर गेहूँ काटने की आशा रखने मे कौन सी बड़ी बात है ? जैसे यहाँ हमे जौ बो कर जौ ही मिलने है इसी प्रकार मालिक की दरगाह मे बुरे कर्मो का बुरा फल मिलना ही मिलना है।
      लुकमान की इस बात का उसके दिल पर गहरा प्रभाव पड़ा। अब उसके मालिक की आँखे खुली और वह अपने कुकर्मो पर पश्चाताप करता हुआ कहने लगा – ‘लुकमान! तुमने आज मेरी बुद्धि पर पड़े हुए अज्ञानता के पर्दे को उतार फैंका है। मै सचमूच ही बड़ा मूर्ख हूँ, जो कि बबूल बो कर आम खाने की आशा रखता हूँ। बुराई के विपरित भलाई प्राप्त करने के सपने सँजो रखता हूँ। यथार्थ मे ऐसी आशा रखना निरर्थक ही है। जो जैसा बोयेगा, उसे वही काटना पड़ेगा। ‘जैसी करनी वैसी भरनी।
      उस दिन के पश्चात लुकमान के मालिक ने अपने आचरणों पर कड़ी निगाह रखनी आरम्भ कर दी तथा धीरे-धीरे उसकी प्रकृति मे परिवर्तन आता गया। इस प्रकार लुकमान की बुद्धिमत्ता से उसके मालिक का जीवन स्वर्णमय बन गया तथा उसके साथ के अन्यो को भी सन्मार्ग मिल गया।
जेहा बीजै सो लुणै करमा सन्दड़ा खेतु ।।
        अर्थात् कर्म के क्षेत्र मे मनुष्य जैसा भी बीज बोयेगा, उसे वैसा ही फल काटना पड़ेगा। कर्म किये बिना तो दुनिया मे कोई भी खाली नही बैठता। यदि कोई शरीर से कर्म न करे तो मन के संकल्पो-विकल्पों द्वारा कर्म करता रहता है। वही कर्म समय आने पर अपना परिणाम जीव के आगे धर देता है। कर्मो का फल तो हर स्थिति मे मिलना ही मिलना है।
जैसे की तुलसीकृत रामायण मे भी लिखा है –
।। चोपाई ।।
कर्म प्रधान विश्व करि राखा ।
                           जो जस करहिं सो तस फल चाखा ।। 
      अर्थात् जीवन काल मे मनुष्य जैसा कर्म करता है वैसा ही फल पाता है क्योकि इस संसार मे नियम ही कुछ ऐसा है कि यहाँ कर्मो की प्रधानता है तो फिर क्यो न मनुष्य श्रेष्ठ कर्म करे क्यो न सच्चाई व नेकी से जीवन व्यतीत करे। संसार मे अच्छे कर्म करते हुए मालिक की प्रसन्नता प्राप्त करे तथा यहाँ से चलते समय प्रसन्न होकर प्रयाण कर सके।               

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