सन्त महापुरूष तो आदिकाल से ही जीवो की भलाई चाहते आये है। वे दया के अपार सिन्धु होते है। प्राणियो की दीन-दशा देख वे द्रवित हो जाते है। संसार मे आकर मानव स्वार्थवश हिंसा करने तक से नही कतराता। उस समय यह बात नितान्त ही भूल जाता है। कि यह समस्त सृष्टि उसी ज्योतिर्मय भगवान की अपार ज्योति से ही झिलमिला रही है तथा स्वयं ईश्वर प्रत्येक जीव मे विराजमान् है। इस प्रकार की जीव की पतितावस्था को देख करूणार्द्र हो सन्त-महापुरूष जीवो को सन्मार्ग दिखाते है। इस सत्यता को निम्न दृष्टान्त स्पष्ट करता है –
एक बार की बात है संसार की शोचनीय दशा से पीड़ित होकर महात्मा गौतम बुद्ध जी सुदूर देश मे चले जाने की इच्छा से यात्रा कर रहे थे। मार्ग मे प्राकृतिक सौन्दर्य को देखते हुए उन के मन मे विचार आया कि ‘विधाता ने कितनी रमणीय सृष्टि की रचना की है परन्तु मनुष्य ने इस सुरम्य सुषमा को अपनी बढ़ती हुई अदम्य वासनाओ का शिकार बना कर नष्ट कर डाला है।’ इसी विचारधारा मे बहते हुए सन्त जी अग्रसर हो रहे थे कि इतने मे एक चरवाहा उसी रास्ते से अपनी बकरियो के झुड़ को हाँकता हुआ निकला। उस झुण्ड के पीछे एक कोमलकाय अल्पायु अजा-शावक (बकरी का बच्चा) लँगड़ाता हुआ और दर्द भरी आवाज मे मै-मै करता चला आ रहा था। उसकी एक टाँग घायल थी। इसीलिए वह बकरियों के समूह से बिछड़ जाता था।
उसकी दयनीय दशा देखकर महात्मा जी के मन मे दया हो आई। उनका हदय पसीज उठा। उन्होंने शीघ्रता से आगे बढ़ उस घायल बच्चे को बड़े आराम से अपनी बांहो मे उठा लिया। और चरवाहे के साथ-साथ चलने लगे। चरवाहे से पूछने और बातचीत करने पर उन्हें विदित हुआ कि यह बकरियो का समूह बलि हेतु ले जाया जा रहा है।
तब मै भी तुम्हारे साथ चलूँगा। यह कहकर महात्मा जी उसके साथ-साथ नगर की और चल पड़े। एक तेजस्वी सन्त और एक साधारण चरवाहे को इकटठा चलते देख लोग आश्चर्यचकित हो उन दोनों का मुँह ताकने लगे।
जब दोनों बलि-वेदी के स्थान पर पहुँचे तो वहाँ महात्मा बुद्ध जी क्या देखते है कि महाराजाधिराज ‘बिम्बसार’ अजामेध यज्ञ कराना चाहते है। पुरोहित लोग आवश्यक रितियां पूरी करने मे लगे हुए है। उस समय किसी व्यक्ति ने जाकर राजा को सूचना दी कि चरवाहे के साथ एक दिव्य-पवित्र मूर्ति सन्त जी भी आये है। परन्तु वे साधारण जीव सन्त जी के हदय की बात को क्या जान सकते थे।
जब बलिदान का समय निकट आया तो उस समय पुरोहितो ने जो मन्त्रादि उच्चारण किये। उनका भावार्थ यह था कि ‘राजा बिम्बसार के सारे पापो का बोझ इस बकरे के बलिदान देने से हल्का हो जायेगा और उससे राजा सकल पापों से मुक्त हो जायेगा।’ यह कहकर पुरोहित ने अन्तिम मन्त्रोच्चारण करके खड़ग उठाई और ज्यो ही बकरे का सिर धड़ से अलग करने के लिए निकट पहुँचा त्यों ही वहाँ सौम्य मूर्ति महात्मा जी वहाँ आ गये। उन्होने आगे बढ़कर बकरे की गर्दन पर अपना स्नेह पूर्ण हाथ रख दिया। पुरोहित यह आलौकिक साहस देखकर निश्चेष्ठ रह गया। परिणाम यह हुआ कि पुरोहित के निर्दयता पूर्ण आक्रमण से उस मूक जानवर की रक्षा हो गई। उनके मस्तक पर बरसते हुए तेज को देखकर समस्त सभा मे आतंक छा गया। सभी मौन होकर उस दिव्य मूर्ति की और टकटकी लगाए देखते ही रह गए। पुरोहित का हाथ ऊपर का ऊपर ही उठा रह गया। अब उसमे वार करने का बल ही न रहा।
अपने कार्य मे रूकावट आने पर राजा बिम्बसार चौकन्ना होकर इधर-उधर बगलें झांकने लगा। पुरोहितो के हदय धड़कने लगे, किसी मे दम मारने की शक्ति न रही। तभी उन सन्त जी ने नीरवता (खामोशी) को भंग करते हुए अपनी मधुर और प्रशान्त वाणी मे उपदेश दिया – ‘ऐ माया के मतवालो! एक राजा के पापों का उत्तरदायी यह निरपराध बकरी का बच्चा क्योंकर हो सकता है? यह संसार कर्म-क्षेत्र है। यहाँ जो जैसा कर्म करता है, वही उसको भोगने वाला बनता है। एक निर्दोष बकरें के प्राण लेकर तुम अपने पापों से मुक्त नही हो सकते। क्योकि यह ईश्वरीय नियम के विरूद्ध है।
जुलम करना छोड़ दे जालम खुदा के वास्ते ।
है यह हरकत नागवार अहले खुदा के वास्ते ।।
सब बनाये है उसी के जिसने तुम्हे पैदा किया ।
क्यो सताता है किसी को दो दिन के वास्ते ।।
सन्त जी की यह सच्चाई व प्रभावशाली वचन श्रवण कर सारी सभा निस्तब्ध रह गई। राजा अपने किये हुए दुष्ट कर्म पर वही बैठा हुआ सिर निचे करके पश्चाताप करने लगा। पुरोहित और पंडित मारे लज्जा के भूमि मे गड़े जा रहे थे। सन्त जी निर्दोष बकरे को गोद मे लेकर प्यार भरी थपकियां देने लगे। पूरोहितो ने अत्यन्त लज्जित होकर हथियार दूर फैंक दिये। राजा अपने सिंहासन पर से उठकर पुरोहितो सहित सन्त जी के चरणो पर जा गिरा एवं आर्त्ता स्वर मे उनसे क्षमा याचना करने लगा।
सन्त जी ने उन्हे शुभाशीर्वाद देकर उठाया। तत्पश्चात बिम्बसार राजा सन्त जी को अपने राजप्रसाद मे ले गए। जहाँ महात्मा जी ने राजा को मानव धर्म को अपनाने का पावन उपदेश दिया। जिससे उस राज्य मे राजाज्ञा से पशु वध बंद कर दिया गया।
इतना ही नही महाराजा बिम्बसार ने अपना राज-पाठ महात्मा जी के चरणों मे समर्पित करना चाहा परन्तु जो पहले ही राज्य के भोगैश्वयो को त्याग कर सच्चाई की खोज मे निकले थे वे इस राज-पाठ को लेकर क्या करते?
महात्मा जी ने शान्तिप्रद वचनों मे इतना ही कहा – ‘राजन! यह राज्य का सुख विलास तुम्हे ही शोभा देता है। हम जैसे विरागियो को नही। आप राज्य के कार्य साथ-साथ हमारे प्रदान किये हुए नाम-मन्त्र की कमाई भी करते रहना, उससे यह राज्य करते हुए भी आप निर्लिप्त रह सकेगे।’ यह कहकर सन्त जी वन की और प्रस्थान कर गये।