इस बात से तो प्रत्येक मनुष्य परिचित है ही की सृष्टि के कण-कण का मालिक पारब्रह्य परमेश्वर ही है। उदाहरणतया सूर्य, चन्द्रमा, सितारे, धरती, आकाश, हवा, वर्षा, नदी-नाले, वृक्ष, पशु, प्रत्येक जीव-जन्तु एवं मनुष्यादि का मालिक पारब्रह्म परमेश्वर ही है। यह निराकार रूप परमेश्वर सब मे रमा और समाया हुआ है। सूर्य और चाँद दीन-रात उसी के आदेशानुसार चलते रहते है। यहाँ तक की प्रत्येक इंसान व पशु की जिदंगी मौत व प्रारब्ध उस परम पिता परमात्मा के बनाये हुए नियम के अनुसार ही चलते है। जैसे – ‘हुक्म बिना नही झूलै पाता’ क्या जड़ और क्या चेतन सारी सृष्टि प्रभु की आज्ञा मे बँधी हुई है।
इस यथार्थता को जानते हुए भी मानव-मात्र मोह-ममता और तृष्णा के जाल मे उलझ गया है और कहता है कि यह मेरा है, मै इसका मालिक हूँ। मुझे यह भी चाहिए वह भी चाहिए इत्यादि।
सो इसी सत्यता को दर्शाने के लिए मै आपके सामने एक प्रंसग प्रस्तुत कर रहा हूँ।
एक बार किसी सुनार ने अपने देश-सम्राट के लिए हीरे-जड़ित एक बहुमूल्य अंगुठी बनाई। इस मुद्रिका के निर्मित करने में स्वर्णकार ने अपनी सारी शिल्पकारिता समाप्त कर दी। यह मुद्रिका इतनी सुंदर बनी की जो भी कोई इसे देखता तो स्वर्णकार की प्रंशसा किए बिना न रहता। इसकी दुकान एक विख्यात और चहल-पहल से भरे बाजार मे थी।
एक दिन का वृत्तान्त है कि कुछ व्यक्ति इस सुनार की दुकान पर आकर यह अंगूठी देख रहे थे और उसकी सुंदरता पर वाह-वाह कर रहे थे। कभी कोई हाथ मे देखकर प्रंससा करता तो कभी कोई। इस प्रकार मुद्रिका-दर्शाकों की एक एक अच्छी भीड़ दुकान पर हो गई। सुनार प्रत्येक के मुँह से अपनी प्रशंसा सुन मन ही मन गदगद् हो रहा था। क्योकि मनुष्य का तो यह स्वाभाविक गुण है कि अपनी प्रंशसा सुन वह फूलने सा लगता है। जब सुनार की दुकान पर मुद्रिका-दर्शाको की भीड़ सी हो गई तो उस समय वहाँ एक अवधूत साधु महाराज जी आ पहुँचे। लोगों से सब कुछ पूछने और अंगूठी की बड़ाई सुनने के बाद वह साधु भीड़ को चीरते हुए सुनार के निकट पहुँचे और अंगूठी देखने की इच्छा व्यक्त की। जब अंगुठी इस अलमस्त साधु को दिखाई गई तो इन्होने अपनी अंगुली सामने करके सुनार से कहा – ‘भाई! सुनार यह अंगूठी भगवान की अंगुली मे पहना दो।’
तिस पर साधु ने कहा – ‘मै झूठ क्यो बोलूँ, मैने जो कुछ कहा है सत्य ही कहा है और फिर भी यही कहूँगा की यह अंगूठी भगवान की अंगुली में पहना दो।’
तब लोगो ने पुनः कहा – ‘बाबा! आप ऐसी बातें क्यो बना रहे हो। तुम तो ईश्वर के एक बंदे हो। आपका ऐसा कहना की अंगुठी भगवान की अंगुली मे पहना दो सर्वथा असत्य और अनुचित बात है। अगर यह बात राजा साहब ने सुन ली तो वह आपको बहुत सजा देगे।’
इस समय यह अंगुठी दुकान के शो-केस मे पड़ी थी। अब साधु ने स्वयं वहाँ से उठा वह अंगुठी अपनी अंगुली मे डाल ली और लोगों की बात सुन हँस दिये, बोले – सजा किसको? सजा तो उसको मिलती है जो कोई बड़ा अपराध करे अथवा असत्य भाषण करे। परन्तु … मैने न तो कोई अपराध किया है और न ही कुछ झुठ बोला है फिर मुझे दण्ड क्यो मिलेगा? अभी उस अलमस्त फकीर और लोगो में यह वार्त्ता चल ही रही थी कि एक राज-कर्मचारी वहां आया और सुनार से कहने लगा – ‘राजा साहब ने तुम्हे राज-दरबार मे बुलाया है। अगर अंगुठी तैयार हो तो वह लेकर शीघ्र ही वहां पहुँचे।’
सन्देश पाकर स्वर्णकार राज-सदन मे जाने के लिए तैयार होने लगा। सुनार ने जब वह अंगुठी जो कि साधु के पास थी उन से मांगी तब साधु ने अंगुठी देने से साफ इंन्कार करते हुए कहा – ‘यह अंगुठी भगवान के हाथ मे आ चुकी है। अतः अब तुम्हे यह नही मिल सकती।’
यह अनोखा उत्तर पाकर सुनार ने कहा – ‘अच्छा, तो फिर बाबा! आप भी चलो राजा साहब के पास।’
साधु महाराज कहने लगे – ‘हाजिर हूँँ।’ इतना कहकर वह सुनार के साथ चल पड़े। बहुत से लोग भी इस कौतुक को देखने व सुनने के लिए उसके साथ हो लिए। थोड़ी ही देर मे अत्यधिक जनसमुह राजा के दरबार मे जा पहुँचा। राजा ने हैरान होकर देखा कि इतना जनसमुह क्यो आ रहा है? पूछताछ की – सब वृत्तान्त ज्ञात हुआ। पुनः राजा ने बड़ी गम्भीरता के साथ साधु से पूछा – बाबा जी! आपने क्या कहा था?
साधु ने उत्तर दिया – राजन! मैने कहा था कि यह अंगुठी भगवान की अंगुली मे पहना दो, लेकिन यह लोग है कि मेरी सत्य बात को भी मिथ्या बताते है।
राजन – बाबा! आप तो खुदा के बन्दे है आपका यह कहना अनुचित ही है। बस, यह बात कहना छोड़ दो और भगवान के दरबार से अपनी इस उदण्डता के लिए क्षमा याचना करो।
साधु – नही, जब मैने कोई अपराध ही नही किया और न ही कोई जुर्म किया है फिर माफी कैसी? क्षमा तो वे लोग मांगते है तथा वे ही भयभीत होते है जिनके दिलों मे अपने जघंन्य पापों की गन्दगी भरी होती है, द्वैतभाव होता है अथवा कोई भूल की होती है। मै भला, क्यो डरूँ?
देश-सम्राट ने नम्रता से कहा – बाबा! मुझे यह समझा दो कि आप इस प्रकार क्यो कहते है? जो बिल्कुल ही निति के विरूद्ध है।
साधु – तो लो, मै अभी आपको समझाए देता हूँ लेकिन इस शर्त पर पहले आप मेरे प्रश्नो का उत्तर दो।
राजा – पूछिये, यदि मै जवाब देने मे समर्थ हो सका तो अवश्य दूंगा।
साधु – राजन! आप प्रथम तो बताए कि यह सारी सृष्टि (सूर्य, चाँद, सितारे, दरिया, पहाड़, धरती आदि) किसकी है?
राजा – ईश्वर की।
साधु – फिर, इस सृष्टि पर जिस धरती पर आप सम्राट बने है वो किसकी?
राजा – ईश्वर की।
साधु – आपके इस देश मे यह राजधानी जिसमे आप निवास करते है वो किसकी?
राजा – ईश्वर की।
साधु – यह बताओ की जिस महल मे आप जीवन-निर्वाह कर रहे है वो किसका?
राजा – वो भी परमात्मा का।
साधु – फिर आपका यह शरीर जिसमे की आत्मा निवास करती है वो किसका?
राजा ने फिर वही उत्तर दिया – ईश्वर का।
राजा द्वारा प्रत्यक प्रश्न का उत्तर कि ‘सब कुछ ईश्वर का है’ सुन कर साधु महाराज जोर से हँसे और कहने लगे – ‘राजन! जब ये शरीर ही भगवान का है तो फिर यह अंगुठी आप जिस अंगुली मे पहनोगे वो किसकी?
राजा ने जब साधु के मुख से यह बात सुनी तो हैरान हो चुप रह गए। तब साधु ने कहा – राजन! जवाब क्यो नही देते कि यह शरीर भगवान का है तो फिर यह अंगूठी आपकी कैसे हो गई? राजन! बताओ तो सही, मैने कोई असत्य भाषण तो नही किया था।
अब राजा के हदय पर से अज्ञानता का छाया आवरण साधु महाराज के सदुपदेश द्वारा हट गया था और नम्रतापूर्वक उनके चरणों मे अपना सिर रख कर कहा ‘बाबा जी! आपने वास्तव मे मेरे दिल व दिमाग मे छाये अज्ञानता के पर्दे को हटा दिया है।
यद्यपि राजा को अब काफी ज्ञान हो चुका था। फिर भी साधु महाराज ने कहा – ‘राजन! माना ये बातें तुम आन्तरिक हदय से कह रहे हो परन्तु माया का प्रपंच बहुत प्रबल है। इस माया व ममत्व के मद मे आकर पुनः भूल जाने का सन्देह बना रहता है। इसलिए फिर भी हम आपको वह शिक्षा देते है जिस पर आचरण कर आप अमली जामा पहन सको और सच्चे अर्थो मे निश्चय करके सब कुछ भगवान् का जान सको।’
राजा ने करबद्ध विनय की – तो, फिर महाराज! आप वह आदेश मुझे अवश्य दिजिये।
राजा को अधिकारी जान साधु महाराज ने उन्हे सच्चे नाम की दीक्षा दी। इस पर आचरण कर राजा ने अपना जीवन सुखी बना लिया। और परलोक भी सुहेला कर लिया।