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दृढ़ संकल्प की शक्ति

।। दोहा ।।
सुख देवें दुख को हरे, दूर करे अपराध ।
कह कबीर वे कब मिले, परम सनेही साध ।।

      सन्त सत्पुरूष आदिकाल से जीवो के कल्याण हेतु ही अवतार धारण कर इस संसार में आया करते है। जिस प्रकार बादल धरा पर पानी बरसा कर सबको शीतलता प्रदान करता है। उसी प्रकार ही सन्त जन भी चाहे उनकी शरण मे कितने ही कर्कश प्रकृति वाला अथवा कड़वी वाणी बोलने वाला कोई व्यक्ति भी उनके समीप आये तो उसे वे अपने पवित्र श्री वचनों द्वारा परम शान्ति प्रदान करते है। इतना ही नही, वे अपने ऊपर हजारों प्रकार की विपत्तिया सहर्ष ले लेते है। ऐसा ही एक दृष्टान्त है जो इस प्रकार है –

      

   ‘पूर्णा’ एक सौदागर का लड़का था। उसका कार्य एक देश से सामान लाकर दूसरे देश मे बेच आना था। इसके लिए उसके पास कई समुन्द्री जहाज थे। एक बार वह अपने जहाज पर नौकरो सहित किसी देश मे व्यापार के लिए जा रहा था। मार्ग में एक जगह पर उसने पड़ाव डाला। उस स्थान पर उसको महात्मा बुद्ध जी के कुछ शिष्य मिले जो कि सन्त मत के प्रचारार्थ वहाँ पर आए हुए थे। उन रूहानी पुरूषो का सत्संग पूर्णा जी को भी प्राप्त हुआ। जिसका प्रभाव उनके दिल पर गहरा पड़ा। व्यापार करने के पश्चात जब वह अपने घर गया तो सन्तो के सत्संग के प्रभाव से उनके हदय मे प्रेम-भक्ति व प्रभु दर्शन के विचार घर कर चुके थे। वह सीधा ही महात्मा बुद्ध जी के चरणों मे उपस्थित हुआ तथा अपने ऐश्वर्यमय जीवन को एक ताक पर रख, वैराग्य धारण कर महात्मा बुद्ध का शरणागत हो कर भिक्षुक ही बन गया। उस दिन से उसका काया-कल्प ही हो गया। जिससे वह और भी अधिक प्रेम-भक्ति की प्रतिमा बन कर व पूर्ण अमली कार्यवाही करके रूहानी प्रचारक जा बना।
      सन्त वेष को धारण कर लेने पर उसके हदय मे जीवों के प्रति दया के भाव उमड़ पड़े। उस संन्यासी ने अपने विचार से ‘स्वर्णपरन्ता’ नाम के द्वीप के लोगों मे अपना आध्यात्मिक उपदेश प्रसारित करना चाहा, परन्तु वहाँ के निवासियो की निम्न (नीच) दशा से यह भली भाँति परिचित न था। वे लोग बुरे आचरण वाले व झगडालू प्रकृति के थे। भक्तिभाव तो उस द्वीप से कोसो दूर भाग चुका था। समस्त द्वीप मे यह द्वीप नास्तिकता व अश्लीलता के लिए प्रसिद्ध था। उन लोगो की दयनीय दशा को देखकर सन्त जी के हदय मे करूणा हो आई।
      एक दिन महात्मा पूर्णा जी घूमते हुए स्वर्णपरन्ता द्वीप मे आये। उन लोगो की गिरी हुई दशा को देख इन्हे करूणा हो आई। अतः उनके जीवन को ऊँचा उठाने के अभिप्राय से इन्होंने गुरूदेव के चरणों मे पहुँच कर विनय कि तथा उन लोगों के सुधार का विचार प्रकट किया एवं इस शुभ कार्य के लिए उनसे आज्ञा भी चाही।
      भगवान बुद्ध ने अपने प्यारे शिष्य पूर्णा जी को फरमाया – बेटा! इस द्वीप के लोग अच्छी प्रकृति के नही है। वे तुम्हे बहुत कष्ट देगे व सतायेगे। इसलिए तू वहाँ पर मत जा।
      परन्तु सन्त पूर्णा जी के दिल मे तो उन लोगों की बुराई का विचार न था। वह समझ गये कि गुरूदेव मेरी सहनशीलता की परीक्षा लेना चाहते है। तब उन्होने हाथ जोड़कर विनय कि – भगवन्! मै आपके आशीर्वाद से व आपके द्वारा मिली हुई आध्यात्म विद्या, शान्ति और सहनशीलता के द्वारा उन लोगों की उदण्डता पर विजय पा लूँगा।
      भगवान् बुद्ध ने पुनः कहा – पूर्णा! वे लोग बड़े क्रोधी है। तेरे साथ कठोरता व ईष्यापूर्ण व्यवहार करेगें, तुझे अकारण कष्ट पहुँचायेगे, वे बड़े दुर्जन है। तब तू क्या करेगा ?
      पूर्णा जी ने करबद्ध विनय कि – गुरूदेव! यदि वे लोग मुझको बुरा कहेगे या मुझ पर क्रोध करेगे, तो मै यही सोचूँगा – मुझे मार तो नही देगें ना।
      भगवान् ब्रद्ध ने फिर कहा – वत्स! यदि वे तुझको मारे या पत्थरो से प्रहार करो – तब तू कैसा व्यवहार करेगा ?
      उत्तर मे पूर्णा जी ने विनय की – महाराज! तब मै यही सोचूँगा कि वे लोग फिर भी अच्छे है – मुझ पर ड़ण्डो या तलवारों से तो हमला नही कर रहे।

      भगवान बुद्ध बोले, अच्छा वे यदि तुझे मौत के घाट उतारने को उद्यत हो जाये, तब तू क्या सोचेगा ?

      पूर्णा जी ने प्रत्युत्तर मे नम्र निवेदन किया, ‘भगवन् तब मे हदय मे यही विचार करूँगा कि यह लोग सज्जन है कि किसी प्रकार का कष्ट दिये बिना मुझे इस शरीर से छुटकारा दिलवा रहे है।’
      भगवान् बुद्ध अपने प्रिय शिष्य के अदम्य साहस और सहनशीलता को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्होने आर्शीर्वाद देते हुए कहा – ‘शाबाश! तुझ में सहन शक्ति धैर्य और साहस के गुण चरम सीमा तक पहुँच चुके है। अब हमारी आज्ञा है कि तू रूहानी प्रचार के लिए ‘स्वर्णपरन्ता’ द्वीप मे जाकर वहाँ के निवासियो को भक्ति का ज्योतिर्मय पथ दर्शा।’
      गुरुदेव की आज्ञा पाकर सन्त पूर्णा जी ‘स्वर्णपरन्ता’ द्वीप मे गये और रूहानी प्रचार आरम्भ कर दिया। अपनी दुष्प्रकृति के अनुसार वहाँ के निवासियो ने सन्त पूर्णा जी को कई प्रकार के कष्ट भी पहुँचाये एवं दोष भी लगाए। चूंकि पूर्णा जी अगाध शान्ति के भण्डार तथा विशाल हदय रखने वाले सहिष्णु पुरूष थे। अतः उन लोगो के दुर्व्यवहार को सहर्ष सहन करते गये। धीरे-धीरे पूर्णा जी के आदर्शमय जीवन का उन लोगो पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि उन के पाषाण हदय मोम-सदृश कोमल हो गये। वे सब सन्त जी की शरण मे आये। उनके सत्संग के प्रभाव से उन सब का जीवन भक्तिमय बन कर जगत् मे जीता जागता एक नमूना बन गया। पूर्णा जी की इस सफलता पर भगवान बुद्ध बहुत प्रसन्न हुए। उन्होने अपने अनन्य सेवक को मंगलमय आशीर्वादो से कृतार्थ कर दिया।
      इस कथा से स्पष्ट है कि सन्तो के सत्संग व उपदेश से दुर्जन भी सज्जन बन जाते है। सन्त सत्पुरूषो का आचरणमय जीवन कितना प्रभावशाली होता है। वे स्वयं नाना प्रकार के कष्ट उठाकर जीव की भलाई के लिए उसे सन्मार्ग दर्शाते है तथा प्रेम-भक्ति के अमृत द्वारा उन के हदय मे काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार की जलती हुई ज्वाला को शान्त करके जीवन को आनन्दमय बना देते है।                   

  

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