जब परम पिता परमात्मा ने सृष्टि की रचना। की तब सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के कार्य संचालन के लिए तीन देवताओ को निर्धारित किया। ब्रह्मा जी को उत्पत्ति करने का सौपा गया, भगवान् विष्णु जी को पालन-पोषण का तथा शिवजी को संहार करने का कार्य सौंपा गया। तभी से ये तीनों देव (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) अपना-अपना कर्त्तव्य समझ कार्य करते चले आ रहे है। किसको कहाँ जन्म देना है वह सोचना ब्रह्मा जी का काम है। प्रारब्धनुसार प्रत्येक जीव को भोजन पहुँचाना भगवान् विष्णु जी का कार्य है एवं किस की कब और किस तोर-तरीके से मृत्यु होनी है वह अधिकार शिवजी के हाथों मे है।
जिस समय सृष्टि की रचना हुई थी उस समय प्रारम्भ के वह कहना कठिन था कि इन त्रिदेवों मे कौन अग्रज (बड़ा) है ? उस समय यही समस्या सबके समक्ष थी। कहा जाता कि इस बात का निर्णय करने के लिए ऋषियो-मुनियो व महापुरूषो की एक महासभा आयोजित की गई। उस सभा मे किसी एक ने अपने विचार प्रकट किये कि मेरे विचारनुसार इन त्रिदेवो मे पैदा करने वाले ‘ब्रह्मा जी’ बड़े है। तब इस पर किसी अन्य ने अपनी अभिव्यक्ति दी कि जीवों का संहार करने वाले ‘शिवजी’ को ही बड़ा समझना चाहिए तथा कोई अन्य कहने लगा कि जो जीव मात्र का भरण-पोषण करते है वही ‘विष्णु’ बड़े है। उस समय उस सभा मे ‘जितने मुँह उतनी बाते’ वाली उत्ति अक्षरशः सत्य चरितार्थ हो रही थी। अत्यधिक वाद-विवाद तो हुआ परन्तु फिर भी इस पिषम समस्या का समाधान न हो सका कि इन देवो मे कौन बड़ा है। अत्यधिक विचार-विमर्श करने के उपरान्त महा ऋषि ‘भृगु’ जी को इस कार्य के लिए नियुक्त किया गया कि आप ही इस जटिल समस्या को सुलझावे।
‘स्मरण रहे कि यह महर्षि भृगु जी वही है जिन्होंने ज्योतिष विद्या के प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘भृगुसंहिता’ की रचना की है।’
तब उन सब के कहने पर भृगु ऋषि जी ने अपने मन में प्रथम इन तीनों देवताओ के शील स्वभाव की परीक्षा लेने का विचार किया। ऐसा विचार कर महर्षि भृगु जी सर्व प्रथम ब्रह्मलोक मे गये। वहां पहुँचते ही शोर मचाने लगे – ‘अरे बूढ़े! मालूम होता है कि तुम्हारा मस्तिष्क-संतुलन विकृत हो गया है जो कही सांप पैदा करते हो तो कही विषैले बिच्छू तथा कही शेर, व्याघ्र आदि हिंसक पशु। भला ऐसे जानलेवा जानवर पैदा करके तुम्हारे हाथ क्या आता है ?’
ब्रह्मा जी यह सुन कर रोष मे भर गए और बोले – ‘देखो, भृगु! तुम ब्राह्मण हो, इसी नाते मे चुप हूँ, अन्यथा तुम्हारे द्वारा कहे जाने वाले इतने कटु वचनों के प्रतिरूप मै तुम्हे इसी समय अभिशाप देकर भस्म कर देता। अतः तुम्हारी इसी मे कुशलता है कि अब भी अपनी वाणी पर नियन्त्रण करो और इसी समय यहां से चले जाओ।’
वहाँ से चलकर भृगु जी कैलाश पर्वत पर गये और जाते ही कहने लगे – ‘वाह रे, भोलेनाथ! तुम तो सचमुच ही बगुले भक्त हा। कोई अच्छा हो अथवा बुरा तुम तो हर समय सब के प्राण लेने पर ही तुले रहते हो। जीव मात्र के प्राण लेने के बाद भी नेत्र मूँद कर इस प्रकार बैठ जाते हो मानो तुमने कुछ किया ही नही। जैसा सुनते थे वैसा प्रत्यक्ष ही देख लिया है।’
भृगु जी की यह बात सुनकर त्रिपुरारी (शिवजी) आग-बबूला हो गये और त्रिशुल सम्भालते हुए बोले – ‘महर्षि भृगु! तुम्हे क्या हो गया है जो बोलने तक की भी सभ्यता नही रही। यहाँ से शीघ्र भाग जाओ, नही तो मै तुम्हे अपने त्रिशुल से अभी तुम्हे मार दूँगा।’
शिवजी से इस प्रकार उग्र बातें सुनकर भृगु जी वहां से चल दिये और अब झीर सागर की और कदम बढ़ाने लगे जहाँ विष्णु भगवान जी शेष-शय्या पर विश्राम कर रहे थे और श्री लक्ष्मी जी उनकी चरण सेवा कर रही थी। भृगु जी वहाँ जाकर द्वारपालो से पूछा – विष्णु जी कहां है ?
द्वारपालों ने उत्तर दिया कि ‘वे इस समय आराम कर रहे है इसलिए आप अन्दर नही जा सकते।’ परन्तु भृगु जी ने उनके कथन की कुछ परवाह न की और भीतर चले गये। अन्दर प्रवेश करते ही आव न देखा ताव भगवान विष्णु जी के वक्षःस्थल पर लात का प्रहार कर कृत्रिम क्रोध बरसाते हुए कहने लगे – ‘तुम्हारे घर एक ब्रह्मण आया है और तुम निशिचत यहां सोये पड़े हो। तुम्हे तो अतिथि-सत्कार करना भी नही आता।’
यह सुनते ही भगवान विष्णु जी शय्या पर से उठ खड़े हुए और महर्षि जी का चरण पकड़ दबाते हुए कहने लगे – ‘महर्षि जी! मेरे अहोभाग्य कि आपने कृपा कर आज दर्शन दिए। मै अपने इस अपराध की आपसे क्षमा चाहता हूँ कि जब आप इस भवन मे आए तो उस समय मै सो रहा था।’ पुनः नम्रता से आप्लावित शब्दों मे कहने लगे – ‘मेरी छाती वज्र के समान कठोर है और आपके चरण अति कोमल है। कही मेरी छाती पर प्रहार करने से आपके चरण मे चोट तो नही आई। महर्षि जी! मुझे क्षमा कर दिजिये।’
भगवान विष्णु की इस प्रकार की नम्रता, दीनता व सहनशीलता को देखकर महर्षि भृगु जी अति प्रसन्न हुए और भगवान से कहने लगे – ‘ऐ लक्ष्मीपति! यदि आप चाहते तो आप मुझे कड़े से कड़ा दण्ड भी दे सकते थे परन्तु उसकी अपेक्षा आपने मेरे साथ नम्रता से कितना सुन्दर व्यवहार किया। धन्य है आपकी महानता और दीनता का उच्चादर्श। आपकी तुलना मे त्रिलोकी मे कोई नही है।’
जैसे कहा भी है –
इसके पश्चात प्रसन्नचित्त होकर महर्षि भृगु जी वहां से विदा होकर ऋषि-मुनियो की उस महासभा मे पहुँचे और भगवान विष्णु की महानता की भूरि-भूरि प्रसंशा करने लगे। तब सबने एक स्वर मे पूछा कि – ‘आपने उनमे ऐसा कौन सा महान गुण देखा है ?
तब भृगु जी ने समस्त व्रत्तान्त अक्षरशः कह सुनाया जिसे सुनकर सबने मुक्त हदय से यह स्वीकृत किया कि वस्तुतः इन तीनों देवताओ मे अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु, महेश मे से भगवान विष्णु जी का पद ही सबसे ऊँचा व श्रेष्ठ है।