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जब लंकापति रावण ने कहा कर्म-रेखा बदली जा सकती है फिर क्या हुआ जानिये

‘होनी अति बलवान है ।’ इसी विषय पर यहाँ एक लंकापति रावण का प्राचीन दृष्टान्त दिया जाता है कि उसने कहा कर्म रेखा अमिट नही है अर्थात् होनी को टाला जा सकती है, फिर उसके साथ क्या हुआ वह तो आपको पढ़ने पर ही पता चलेगा तो आइये जानिये –
      एक बार का वृत्तान्त है कि कुछ देवता तथा लंकापति रावण इकटठे बैठे थे। परस्पर वार्तोलाप के मध्यान्तर मे देव लोग इस बात की चर्चा कर रहे थे कि कर्म-रेखा अमिट होती है। यह बात रावण कब मानने वाला था। वह तो इस बात को सर्वथा असत्य समझता था। उसे तो अपने बाहुबल का घमण्ड था।
      इसी बल-बूते पर वह भावी को भी टालना चाहता था। यह गर्व से उसने देवाताओ के समक्ष भी रखी की ‘कर्म-रेखा बदली जा सकती है यह अमिट नही।’
      यह सुनकर देवताओं ने रावण को समझाया कि ‘ऐ लंकेश ! सूर्य पूर्व से उदय न होकर पशिचम से उदय हो सकता है। अग्नि उष्णता को त्याग शीतल बन सकती है तथा अचल सुमेरू भी दोलायमान हो सकता है अर्थात प्रकृति के यह सब अटल सिद्धान्त विपरीत रूप धारण कर सकते है परन्तु कर्म-रेखा नही बदल सकती।’ देवताओ की इस बात पर रावण अत्यन्त क्रोधित हुआ। उसने गर्व भरे शब्दो मे उन सबसे कहा – ‘अच्छा तो देवगण समुदाय ! मेरी बात सुनो कि अब की बार मेरी जो भी सन्तान होगी उसके सम्बन्ध मे मै स्वयं कर्म-रेखा लिखने वाले विधाता से लडूँगा तथा उस समय अपने इस कथन को आपके समक्ष अक्षरश:सत्य कर दिखाऊँगा।’
      आदि शक्ति के सिद्धान्तो का आज तक किस ने खण्डन किया है? किसी ने नही। हाँ, यदि कोई दर्प मे आकर रावण की भाँति खोखली बात कह भी देता है तो अन्त में उसे प्रकृति के नियमो के समक्ष झुकना ही पड़ता है। जैसे कि रावण ने कहा तो क्या वह वह कर्म-रेखा मे परिवर्तन ला सका? कदापि नही। इसका विशद परिचय ज्ञात करने के लिए आगे पढिये
      समय आने पर रावण के घर कन्या ने जन्म लिया। छठी वाली रात्रि को रावण दरवाजे पर तलवार लेकर खड़ा हो गया इतने मे विधात्री (कर्म-फल दात्री) लेख लिखने आई। तब रावण ने उससे पूछा ‘मै पहले कूछ भी नही कह सकती क्योंकि जब मैं मस्तक पर कलम रखती हूँ तब जैसे-जैसे जिसके कर्म होते है वैसा ही लेख लिखा जाता है। इसलिए इस कन्या के लेख लिखे जाने के बाद ही मै बता सकूँगी।’
      तब रावण ने कहा – ‘मेरे सामने ही कन्या के मस्तक पर कलम रखो।’ विधात्री ने कन्या के माथे पर कलम रखी और लेख लिख गया। उस समय रावण ने कहा ‘अच्छा तो अब लेख पढकर सुनाओ।’ तब विधात्री सुनाने लगी की ‘कन्या अति सुन्दर, पतिव्रता, सदगुण सम्पन्न और शीलवती होगी परन्तु जो तुम्हारे महलो की सफाई करता है उस मेहतर के लड़के के साथ तुम्हारी इस कन्या का विवाह होगा।’
      यह बात सुनकर रावण आग बबूला हो उठा। उस समय तो विधात्री ‘कर्म-रेखा अमिट है’ कहकर एवं रावण को समझा बुझाकर चली गई लेकिन उसके जाने के बाद विश्रवानन्दन (रावण) का क्रोध सीमा पार कर गया। उसने भंगी के लड़के को राज दरबार मे बुलवाया जो कि अभी छः मास का मासूम बच्चा था। रावण ने उस बच्चे के आने पर उसे मारना चाहा मगर दरबारी लोग उसे देखकर बिगड़ उठे। उन्होंने कहा कि ‘हम इस निर्दोष, अबोध बालक को कदापि न मारने देगे। हाँ, देश निकाला यदि देना चाहे तो दे सकते है।’
      तब रावण ने पहचान के लिए बच्चे के पैर की अँगुलियाँ कटवा दी और उसे समुन्द्र के पार निर्जन वन में इस विचार से भिजवा दिया कि वहाँ भूख-प्यास से व्याकुल होकर बच्चा स्वयमेव मर जायेगा परन्तु उस का तो दैव रक्षक था, वह कैसे मर सकता था। जैसे पंचतन्त्र मे लिखा है
।। श्लोक ।।
      अर्थ – मनुष्यो से न रक्षित किया हुआ भी दैव से रक्षा किया हुआ मनुष्य जीवित रह सकता है तथा मुनष्यो से रक्षित किया हुआ भी दैव द्वारा मारा जाता है। ऐसे ही ईश्वर द्वारा रक्षा किया हुआ हरिजन का बालक वन मे भी जीवित रहा, उस अबोध शिशु को रावण वन मे छोड आया। तब तीन दिन तक तो बालक भूखा रहा और अपने हाथ का अंगूठा मुँह मे डाल कर चूसता रहा। तीन दिन तक बालक के भूखा रहने से ब्रह्मलोक तक आवाज पहुँची। तब विधाता ने दिल मे विचार कर विधात्री को आज्ञा दी की तुम उस शिशु की जाकर पालना करो। आज्ञा पाकर विधात्री वहाँ आई एवं बच्चे का लालन-पालन करने लगी।
      शनैः शनैः बालक जब कुछ बड़ा होने लगा तब विधात्री उसे विद्या पढाने लगी। विद्या के पश्चात धीरे-धीरे तैरना और नाव बनाना भी विद्यात्री ने उसे सिखा दिया। इस प्रकार विधात्री ने उसे सब प्रकार की विद्याओं मे निपुण कर दिया।
      जब बालक सर्वगुण सम्पन्न हो गया तब तक उस की अवस्था 18 वर्ष की हो चुकी थी। उस समय विधात्री ने उसी के द्वारा बनाये गए जहाज मे उसे बिठा कर दूसरे टापू मे भेज दिया क्योकि वहाँ का राजा निःस्तान ही मर गया था। (इस प्रकार अचानक भेजने की बात तो विधात्री ही जानती थी। वह बालक इससे नितान्त अपरिचित था।) उधर राजा की मृत्यु के बाद राज मंत्रियो ने यह सलाह की थी कि आज के दिन जो व्यक्ति प्रातःकाल शाही दरवाजा खोलते ही सर्वप्रथम मिलेगा उसी को ही राज-सिहासन पर बिठाया जायेगा। दैवयोग से उसी दिन वहाँ पर जा पहुँचा। अतः शाही दरवाजा खुलने पर जा पहुँचा। अतः शाही दरवाजा खुलने पर सबसे पहले इसको वहाँ खड़ा पाया। तब उन्होने अपने प्रण के अनुसार इस लड़के को राजगददी देकर इस का नाम ‘देवगति’ रखा।
      देवगति विधात्री से शिक्षा प्राप्त कर सभी कार्यो की सचालन-विधि मे पहले ही निपुण था जिससे इसने गददी पर बैठते ही राज्य -कार्यो को सुचारू रूप से चला कर सारी प्रजा को ही अपने सदव्यवहार से प्रसन्न कर लिया। इसकी कीर्ति चारो दिशाओं मे फैलने लगी। इसका बढता हुआ यश रावण और रावण की कन्या ने भी सुनी। उसकी कीर्ति के साथ-साथ उसका छपा हुआ चित्र भी जहाँ तहाँ पहुँच चुका था। उसकी चित्र (फोटो) मे जब रावण व उसकी कन्या ने सुन्दरता देखी तब रावण ने दिल मे सोचा कि ‘इस राजुकमार के साथ अपनी राज कन्या भी मन ही मन देवगति को अपना पति मान चुकी थी। रावण ने अपनी पुत्री के हदय गत भावो को पढ लिया। अतः उसने अपने वजीर को देवगति के राज्य मे भेजा वजीर ने वहाँ पहुँच कर रावण की कन्या के विवाह का प्रस्ताव देवगति के समझ रखा परन्तु देवगति ने इस प्रस्ताव को स्वीकार न किया। अन्ततः वजीर लौट आया। तत्पशचात स्वयं रावण अपनी कन्या को दहेज सहित लेकर उसकी राजधानी मे पहुँचा और बरबस ही कन्या का देवगति से विवाह कर दिया। ‘होनी कहो या कर्म-रेखा अमिट है’ यह किसी युक्ति द्वारा टल नही सकती अतः रावण के सामने देवगति भी इन्कार न कर पाया।

      पुत्री का कन्यादान कर रावण प्रसन्नतापूर्वक जब घर लौटा तब अपने हदय में इस बात का गर्व करता है कि मैने अपने कथनानुसार कर्म-रेखा को परिवार्तित कर दिखाया है। इस तथ्य को जो कि देवताओ ने रावण से कहा था कि ‘कर्म-रेखा अमिट व अटल होती है’ असत्य सिद्ध कर दिखाने के लिए उसने सब देवताओ को बुलवाया तथा उनसे प्रसन्नता व गर्व-मिश्रित वाणी मे बोला कि ‘आप तो कहते थे कि मेरी कन्या मेहतर के लड़के के साथ ब्याही जायेगी। भला, कभी राजकन्या का मेहतर के साथ विवाह हो सकता है। राजकन्या तो राजकुमार को ही वर सकती है अन्य को नही।’
रावण की सब बात सुनने के पश्चात देवताओ ने कहा ‘क्या तुमने राजकुमार का पैर भी देखा है जो कि बचपन मे उस के पाँव की अँगुलिया तुमने काटी थी?’
      यह सुनकर रावण ने उसका पैर देखने के लिए देवगति के पास अपने वजीर को भेजा। वहाँ पहुँचकर वजीर ने देवगति का पैर देखा तो उसके पाँव की अँगुलिया न थी। वजीर ने लौट कर लकेंश से सब समाचार कह सुनाया जिसे सुनकर रावण हक्का-बक्का हो गया। तब देवताओ ने उसे समझाया कि ‘कर्म-रेखा कभी नही मिट सकती।’ उनके इस प्रकार बहुत समझाने पर अन्ततः रावण शान्त हो गया।
      साराशं यह है कि मनुष्य को पिछले कर्मो का फल अश्वमेव भोगना पड़ता है। अतएव प्रत्येक मनुष्य को वर्तमान कर्म श्रेष्ठ व उत्तम करने चाहिये ताकि भविष्य मे फल पाते समय किसी प्रकार का कष्ट अनुभव न करना पडे। वस्तुत: शुभ कर्म करने की युक्तिया श्रेष्ठ संगति द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है। अतः प्रत्येक प्राणी का धर्म है कि सतगुरू की शरण मे रहकर शुभ कर्म करने की युक्तियां सोखे जिससे दोनो लोक ही उस के सुखदायक बन सके।

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