script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-3635523953878797" crossorigin="anonymous">

छत्रसाल

     छत्रसाल देश के उन गिने-चुने महापुरूषो मे है जिन्होने अपने बल, बुद्धि तथा परिश्रम से बहुत साधारण स्थिति मे अपने को बहुत बड़ा बना लिया।

      छत्रसाल के पिता का नाम चम्पतराय था। उनका जीवन सदा रणक्षेत्र मे ही बीता। उनकी रानी भी सदा उनके साथ लड़ाई के मैदान मे जाती थी। उन दिनो रानियाँ बधुआ अपने पति के साथ रण मे जाती थी और उनका उत्सावर्द्धन करती थी। जब छत्रसाल अपनी माता के गर्भ मे थे, तब भी उनकी माता चम्पतराय के साथ रणक्षेत्र मे थी। चारो तरफ तलवारो की खनखनाहट और गोलियाँ की वर्षा हो रही थी। ऐसे ही वातावरण मे छत्रसाल का जन्म एक पहाड़ी गाँव मे सन् 1648 ई. मे हुआ था।
      उनके पिता चम्पतराय ने सोचा कि इस प्रकार के जीवन मे घत्रसाल को अपने पास रखना ठीक नही है। रानी छत्रसाल को लेकर नैहर चली गई। चार साल तक छत्रसाल वही रहे। उसके बाद पिता के पास आ गये।
      बचपन से ही छत्रसाल बड़े साहसी और निर्भीक थे। इनके खिलौने मे असली तलवार भी थी। इनके खेल भी रण के खेल होते है। प्रायः सभी लोग कहते थे कि वे अपने जीवन मे पराक्रमी और साहसी पुरूष थे। इनके गुणो के कारण ही इनका नाम छत्रसाल रखा गया। इसके अतिरिक्त आचार-व्यवहार के गुण इनमे बचपन से ही थे।
       इन्हे बाल्यकाल मे चित्र बनाने का बहुत शोक था। ये हाथी, घोड़े तोप और बन्दूक-सवार सैनिक का चित्र बनाया करते थे। रामायण तथा महाभारत की कथा जब होती तो यह मन से सुनते थे। सातवें वर्ष से इनकी शिक्षा नियमित ढ़ग से आरम्भ हुई उस समय वे अपने मामा के यहाँ रहते थे। पुस्तको की शिक्षा के साथ-साथ सैनिक-शिक्षा भी इन्हें दी जाती थी। दस वर्ष की अवस्था मे ही छत्रसाल अस्त्र-शस्त्र को कुशलता से चलाना सिख गए थे। हिन्दी कविता तथा अनेक धार्मिक पुस्तके इन्होंने पढ़ ली थी। केशवदास कृत ‘राम चन्द्रिका’ इन्हे बहुत प्रिय थी।
      छत्रसाल की अवस्था लगभग सोलह वर्ष की थी, जब इनके माता-पिता की मृत्यु हो गई। छत्रसाल उस समय बहुत दुःखी हुए किन्तु उन्होने धैर्यपूर्वक अपने आपको सभाँला और भविष्य के सम्बन्ध में सोचने लगे। छत्रसाल की अवस्था इस समय विचित्र थी। सारी जागीर छीन चुकी थी। इनके पास न सेना थी न पैसे थे। इन्होने भविष्य का चित्र अपने मन मे बना लिया और अपने काका के यहाँ चले गये। वहाँ कुछ दिन रहने के पश्चात इन्होने अपनी योजना अपने काका को बतायी। युद्ध की बात सुनकर इनके काका बहुत डरे। उन्होंने मुगलो की महती शक्ति का विवरण बताया और कहा कि युद्ध करना बेकार है। काका की बात इन्हें अच्छी न लगी और ये बड़े भाई के पास चले आए। बड़े भाई और ये एक ही मत के थे। दोनो ने मिलकर बुन्देलखण्ड का राज्य पुनः स्थापित करने की योजना बनायी।
      पहला काम तो सेना एकत्र करना था किन्तु इसके लिए धन की आवश्यकता थी। इनकी माता के गहने एक गाँव मे रखे थे। दोनो भाइयों ने गहने बेचकर छोटी सी सेना तैयार की। इसके बाद छत्रसाल का जीवन युद्ध करते ही बीता, वे बहुत चतुर थे। इनके लड़ने का ढ़ग इतना योग्यतापूर्ण था कि कदाचित ही कोई युद्ध ऎसा हुआ हो जिसमे छत्रसाल की हार हुई हो। जब ये देखते थे कि शत्रु की सेना मेरी सेना से अधिक है तो बड़ी चतुराई से अपनी सेना हटा लेते थे। शत्रु की सेना की संख्या से इन्हे कभी घबराहट नही हुई। जहाँ-जहाँ लड़ते थे वहाँ जो उनकी अधीनता स्वीकार कर लेता था उसे तो छोड़ देते थे, जो अधीनता नही स्वीकार करता था, उसकी सारी सम्पत्ति लेकर उसका बहुत अधिक भाग सैनिको मे बाँट देते थे।
      छत्रसाल की शक्ति औरंगजेब की शक्ति की तुलना में कुछ भी न थी। फिर भी वह छत्रसाल को हरा न सका, इसके तीन कारण थे। पहली बात तो यह थी की छत्रसाल के लड़ने का ढ़ग बहुत कौशलपूर्ण था। ये और इनके भाई सेना का संचालन करते थे। ये पहाड़ी प्रदेशो मे लड़ते थे। इन स्थानों की इन्हे भी विशेष रूप से जानकारी थी। जब अवसर मिलता था वे भाग जाते थे और औरंगजेब की सेना लाख सिर मारने पर भी इन्हे हानि नही पहुँचा पाती थी। तीसरी बात यह थी कि इनके सैनिक बड़े साहसी और वीर थे। इनकी विजय का हाल तो बुन्देला सुनता इनकी सहायता करने के लिए तैयार हो जाता और सदा सहायता देता। इन्ही सब कारणो से यह बात हुई जो कभी संभव न थी। और वह यह थी कि बड़े-बड़े सेनापति औरंगजेब की ओर से आए, अनेक स्थानो पर वे छत्रसाल से लड़े, परन्तु कही किसी युद्ध मे विजय न पा सके। छत्रसाल सदा विजयी रहे।
      छत्रसाल का राज्य धीरे-धीरे बढ़ता गया और सारा बुन्देलखण्ड इनके राज्य मे आ गया। इनके राज्य का प्रबन्ध भी बहुत उत्तम और प्रजा को सुख देने वाला था। कोई व्यक्ति यदि स्त्रियो के साथ दुव्यवहार करता तो उसे कठोर दण्ड देते थे। सारा राज-काज उन्ही की आज्ञा से होता था। महाराज का यह नियम था कि प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह कितना भी छोटा हो, उनसे मिल सकता था उनकी विनती और बात सुनते थे। उनके दरबार मे अनेक मंत्री भी थे जिनसे वे परामर्श किया करते थे। एक बार ये शिवाजी के पास गये। वे शिवाजी से अवस्था मे छोटे थे। शिवाजी इनसे बहुत प्रेम से मिले और उन्होंने इनका बहुत सम्मान किया। उन्होने उपदेश दिया कि वीरता से लड़ो, लालच कभी मत करना और अधर्म कभी मत करना। किसी धर्म व जाति से द्वेष मत करना। शिवाजी की ये बाते इन्होने सदा याद रखी।

शिवाजी के बाद उन्होने मराठो से सहायता माँगी। सिंहासन पर अब कोई बलशाली राजा नही रह गया था और मुगल राज के वशजो मे ही झगड़ा हो रहा था। छत्रसाल को इस समय अपने राज्य की रक्षा के लिए लड़ना पड़ा। छत्रसाल बूढे हो चले थे, वीरता और साहस ने इनका साथ नही छोड़ा था, फिर भी इस समय इन्हें सहायता की आवश्यकता आ पड़ी। इसलिए इन्होने पेशवा बाजीराव से सहायता माँगी और उन्होने सहायता दी।

      महाराज छत्रसाल कविता और साहित्य के प्रेमी थी। उनके दरबार मे सदा अच्छे-अच्छे कवि रहते थे और सदा उन्हे पुरस्कार मिलता रहता। कवियो का यह कितना सम्मान करते थे, इसका पता एक घटना से लग सकता है। भूषण कविराज शिवाजी के यहाँ रहते थे। वे एक बार छत्रसाल के यहाँ आए। जब वे इनके महल के निकट पहुँचे, छत्रसाल बाहर आए और आगे जाकर भूषण जी की पालकी में अपना कन्धा लगा दिया। ज्यो ही भूषण जी को पता लगा वे तुरन्त पालकी से कूद पड़े। बोले, “महाराज ये आपने क्या किया।” छत्रसाल ने उत्तर दिया, “आप जैसे महान कवि का सम्मान शिवाजी महाराज के यहाँ होता है। मै उनकी समता कैसे कर सकता हुँ। मै इसी प्रकार आपका सम्मान कर सका।” शिवाजी की मृत्यु के बाद भूषण छत्रसाल के यहाँ अनेक बार आए। भूषण जी ने छत्रसाल की प्रंशसा मे ‘छत्रसालदशक’ नामक काव्य की रचना की।
      इनके दरबार मे जो कवि रहते थे। इनमे लाल कवि भी एक कवि थे, जिन्होने छत्रसाल के सम्बन्ध मे एक पुस्तक लिखी है। जिसका नाम है – छत्रप्रकाश। ‘छत्रसाल’ स्वयं कविता लिखते थे और उनकी अनेक वीरता से भरी रचनाएँ तथा कविताएँ मिलती है। विख्यात छतरपुर नगर महाराज छत्रसाल का ही बसाया हुआ है।
यह बात विख्यात है कि शिवाजी के गुरूदास थे, जिन्होने उन्हें बहुत अच्छे-अच्छे उपदेश दिये। शिवाजी को शिवाजी उन्होने ही बनाया था। इसी प्रकार महाराज छत्रसाल के भी गुरू थे। जिनका नाम प्राणनाथ था।
      बुन्देलखण्ड को शक्तिशाली राज्य बनाकर भी छत्रसाल को शान्ति न मिली। दूसरी शाक्तियाँ सदा ईर्ष्या की दृष्टि से इनका राज्य देखती रही। इसलिए राज्य की रक्षा के लिए इन्हे जीवन भर लड़ना पड़ा। उनकी मृत्यु सन् 1731 ई. मे हुई।

Leave a Reply

Your email address will not be published.