।। दोहा ।।
भक्ति प्राण ते होत है, मन दे कीजै भाव ।
परमार्थ परतीत में, यह तन जाय तो जाव ।।
भक्ति प्राण ते होत है, मन दे कीजै भाव ।
परमार्थ परतीत में, यह तन जाय तो जाव ।।
कहते है कि स्वर्ण को जब तक आग की भटठी मे नही तपाया जाता है तब तक उसमे चमक नही आती। इसीप्रकार समय के सन्त-सदगुरू भी अपने शिष्य को जब तक परीक्षा की कसौटी पर न उतारे तब तक वह जन-साधारण के लिए आदर्श नही बन सकता। यह सत्य है कि गुप्त रूप से सतगुरू का मधुर-मधुर आशीर्वाद तथा रक्षा का हाथ सेवक पर हर समय होता ही है परन्तु प्रत्यक्ष रूप में कार्य करने का निमित्त मात्र तो सेवक को ही बनना पड़ता है। यद्यपि भीतर से तो अलौकिक शक्तियो के मालिक सदगुरू जी की कृपा से ही कार्य सम्पन्न होते है। उनकी विशाल-कोमल भुजाये सम्पूर्ण ब्रह्याण्ड मे गुप्त रूप से सदैव व्याप्त रहती है, परन्तु आवश्यकता तो केवल शिष्य के सदगुरूदेव जी के चरणो में दृढ दिश्वास रखने की। सच्चे सेवक कार्य मे सफल होने पर भी सदगुरु का असीम उपकार मानते है।
जैसे कि इस दृष्टान्त मे दर्शाया गया है
‘समर्थ स्वामी श्री रामदास जी’ छत्रपति शिवाजी के रूहानी गुरू थे तथा शिवाजी का अपने गुरूदेव के चरणो मे दृढ आस्था व अचल विश्वास था। सो इस नाते गुरूदेव की उन पर विशेष कृपादृष्टि बनी हुई थी तथा वह शिवाजी का हर प्रकार से ध्यान रखते थे। इस कारण उनके अन्य शिष्यो के मन मे सदैव यह सन्देह बना रहता था कि श्री समर्थ स्वामी जी शिवाजी को राजा होने के कारण ही इतना महत्तव देते है। अन्तर्यामी गुरूदेव जी ने शिष्यो के मनो मे आए हुए भ्रम को देख आवश्यक समझा कि इनके सन्देह को दूर करना ही पडेगा।
एक दिन गुरूदेव सब शिष्यो सहित यात्रा पर पधारे तो वन के मार्ग के एक गुफा के निकट पहुँच कर यात्रा स्थगित कर दी और लेट कर कहने लगे कि ‘हमारे पेट मे अत्यधिक पीड़ा हो रही है।’
इधर छत्रपति शिवाजी भी उस समय गुरूदेव के दर्शनार्थ निकले थे। आश्रम पर जब पहुँचे तो वहाँ पर अपने गुरुदेव को न पाकर उन्हे खोजते हुए वन की ओर चल दिये। वहाँ गुफा मे पहुँचने पर गुरूदेव को उदर-शूल से कराहते हुए जब देखा, तब शिवाजी ने विनय की – ‘ऐ प्रभो ! आप आज्ञा कीजिये यही पर किसी उचित चिकित्सक को बुला लाऊँ।’
श्री समर्थ स्वामी जी ने उत्तर दिया कि ‘शिवाजी ! व्यर्थ परिश्रम न करो क्योकि यह हमारा दर्द वैद्यो की चिकित्सा से अच्छा होने वाला नही है। इसकी एक औषधि अचूक दवा का काम कर सकती है किन्तु वह …।’ कहते-कहते गुरूदेव जी रूक गये। सब शिष्य मण्डली भी जो कि शिवाजी से मनमुटाव रखती रखती थी समीप खडी गुरुदेव को पीड़ा से व्याकुल होता देख रही थी। गुरूदेव के ओषध के बारे मे कहने पर भी किसी ने कुछ भी न कहा। उधर शिवाजी ने तत्काल ही दोनो हाथ जोड़ कर प्रार्थना की कि ‘प्रभो ! आप जी औषध बतलाते-बतलाते रूक क्यो गये? आप निःसंकोच बताने की कृपा कीजिये – चाहे वह दवा कितनी भी दुष्प्राप्य क्यों न होगी, उसे मै अवश्य ही लेकर आऊँगा। आप पीड़ा से इस प्रकार व्याकुल हो रहे है, अब मै उपचार किये किये बिना यहाँ से हरगिज न जाऊँगा क्योकि इस समय मुझे दूसरी अर्थात राज-राज की बाते नही सूझ रही। अतएव ऐ भगवन ! आप जी इस दीन पर कृपा कर औषध बतलाने की अनुकम्पा कीजिये।’
शिवाजी की इस प्रकार दृढता से पूर्ण वाणी सुनकर श्री समर्थ स्वामी रामदास जी ने शिथिल स्वर में कहा कि ‘हमारे इस शूल को सिंहनी का ताजा दूध ही दूर करने मे समर्थ है परन्तु वह दूध तो दुष्प्राप्य ही नही प्रत्युत अप्राप्य है।’
शिवाजी ने गुरुदेव जी के यह वचन श्रवण करते हो तत्काल कहा कि ‘मै प्रयत्न करता हूँ’ तथा प्रणाम कर गुफा ने निकल गए। उन्होने यह सुन ही रखा था कि सिंहनी का दूध तो केवल स्वर्ण-पात्र मे ही ठहर सकता है। अतः उन्होने पहले स्वर्ण-पात्र लिया पश्चात लौटकर वन मे सिंह की गुफा की खोज करने लगे। ढूंढते-ढूंढते सायंकाल हो गया। अन्ततः उन्हे एक गुफा दिखाई दी जिसमे शावक (बच्चे) परस्पर क्रीड़ा करते हुए दृष्टिगोचर हुए। यह देख शिवाजी को बाछे खिल उठी। जिस प्रेमी के हदय मे दृढ लगन व गुरूदेव के चरणो मे अटूट विश्वास हो तो उसके सब कार्य निविघ्न रूप से प्रकृति स्वयं ही कर देती है। सिंह शावको को खेलता देख शिवाजी सोचने लगे कि यदि शावक यहाँ पर खेलता देख शिवाजी सोचने लगे कि यदी शावक यहाँ पर खेल रहे है तो उनकी माता अर्थात सिहनीं भी अवश्य ही यहाँ पर कही होगी। यह विचार कर शिवाजी उस कन्दरा (गुफा) मे प्रविष्ट हो गए और चुपचाप एक ओर खडे होकर प्रतीक्षा करने लगे।
सिंह, व्याघ्र आदि पशु सीधी और नीचे जाकर फिर पर्वत मे दूर तक जाने वाली कन्दरा ही पसन्द करते है कि जिससे कोई अन्य हिसंक पशु उनकी अनुपस्थिति मे उनके बच्चों पर प्रहार न कर सके। शिवाजी बाट तो जोह ही रहे थे कि इतने मे सिंहनी आई और नीचे कूद कर गुफा मे घुस गई। तब शावक उसके समीप दौड़ते हुए आए। गुफा मे मनुष्य की गन्ध पाकर वह गुर्राने लगी। उसकी गर्जना सुनकर शिवाजी निधड़क होकर सामने आ गए और हाथ जोड़कर बोले कि ‘माता ! मुझे गुरूदेव के लिए तुम्हारा थोड़ा सा दूध चाहिये।’
यद्यपि जो सिंह या बाघ नरभक्षी है वे मनुष्य पर प्रहार न भी करे तो यह माना जा सकता है परन्तु बच्चो के समीप होने पर उनकी माता बहुत भयंकर होती है। वह मनुष्य पर आक्रमण किए बिना पीछे नही हटती। लेकिन जिस मनुष्य के मन मे सच्चे भाव हो, अटूट विश्वास व गुरुदेव के प्रति सहानुभूति हो ऐसे सच्चे आचरणशील व भक्तिवान पुरूषो का हिंसक पशुओ पर भो अच्छा प्रभाव पड़ता है। इसलिए शिवाजी जो कि प्रेम भक्ति के साक्षात स्वरूप थे, उनके निकट जाने पर सिंहनी भी अपना क्रूर व्यवहार तज कर गाय माता के सदृश वत्सल्स प्रकट करने लगी। उसने गुर्राना छोड़ दिया। शिवाजी उसके समीप बैठ कर सहलाने लगे। तब सिंहनी ने भी इन्हे सूँघा और चाटने लगी। उस समय उचित अवसर पाकर शिवाजी ने दूध दुह कर पात्र भर लिया। उस गुफा में से ऊपर चढ़ कर निकलने मे यद्यपि शिवाजी को बहुत श्रम करना पड़ा परन्तु सिंहनी के दूध प्राप्त होने की प्रसन्नता मे कि मेरे गुरूदेव जी इसके द्वारा स्वस्थ हो जायेगे; नवीन उत्साह से भरे हुए शीघ्र ही गुफा से बाहर आ गये।
तत्पश्चात जल्दी-जल्दी वन-पथ को पार करते हुए उस स्थान पर पहुँचें जहाँ शिष्यो सहित गुरूदेव जंगल मे जिस गुफा मे बैठे थे। शिवाजी ने आते ही गुरूदेव के चरणों मे प्रणाम किया। तब गुरूदेव ने पूछा – ‘शिवाजी ! क्या तुम सिंहनी का दूध ले आये हो ?’ शिवाजी ने विनय की ‘जी गुरूदेव ! आपकी कृपा से दूध ले आया हूँ।’ उधर शिष्य तो यह सोच रहे थे कि अब शिवाजी तो आने से रहे क्योकि सिंहनी उनका भक्षण कर लेगी परन्तु उन्हे कार्य में सफल देख कर सब दाँतो तले अंगुलियाँ दबाने लगे तथा अपने मनो मे पैदा हुई ग्लानि व सन्देह पर लज्जित भी हुए।
उसके पश्चात गुरूदेव जी ने वह दुग्ध-पात्र ले लिया और चरणों मे झुके हुए शिवाजी को उठा कर गले से लगाया एवं उन्हे अपनी कृपा भरी चितवन से मालामाल कर दिया। इस प्रकार गुरूदेव स्वामी ने अपने शिष्यो के हदयो मे शिवाजी के प्रति जो सन्देह बना रहता था कि ‘गुरूदेव राजा शिवाजी का अकारण ही इतना ध्यान रखते है व उनको महत्ता देते रहते है’ प्रत्यक्ष प्रमाण आज प्रकट कर दिखाया कि किस प्रकार उन्होंने उदर-शूल के पीछे अपने प्राणो की बाजी लगाकर भी सिंहनी का दूध लाकर दिया।
यह है प्रत्यक्ष उदाहरण दृढ विश्वास एवं उत्साह का। दृढं विश्वास व लगन के द्वारा ही संसार अथवा परमार्थ मे विजय प्राप्त की जा सकती है। जो मालिक के सच्चे प्रेमी होते है वे अपने इष्टदेव की प्रत्येक मौज को सहर्ष स्वीकार कर अपने प्राणो का अत्सर्ग करके भी गुरूदेव की प्रसन्नता पाने की अभिलाषा रखते है। फिर ऐसे परम भक्त की रक्षा मालिक स्वयं करते है। जिस प्रकार कि समर्थ स्वामी रामदास जी ने सिंहनी को भी अपनी कृपा द्वारा गाय रूप बना दिया। आवश्यकता केवल मन मे दृढ लगन व विश्वास पैदा करने की है, फिर श्री सदगुरू जी की कृपा से कठिन से कठिन कार्य भी स्वयमेव सुगम हो जाते है।
।। दोहा।।
सदगुरू की श्रद्धा से की हुई सेवा शास्त्रो ने अत्यधिक उपमा दी है। वैसे तो सभी शुभ तथा श्रेष्ठ कर्मो का फल प्रकृति की ओर से प्रत्येक मनुष्य मात्र को मिलता है परन्तु सदगुरू की सेवा तो लिफ्ट की भाँति हैं जैसे लिफ्ट आदमी को पल भर मे मकान की ऊपर वाली छत पर पहुँचा देती है ऐसा ही सतगुरू की निष्काम भाव से की गई सेवा का प्रताप है। जिसने सेवा करके सतगुरू को प्रसन्न कर लिया वह सदगुरू की कृपा का पात्र बन गया। उसी गुरूमुख का जीवन ही धन्य-धन्य कहलाने के योग्य है।