सन्तो के चरण-शरण की कितनी महत्ता है। इस पर सन्त सहजोबाई जी कथन करती है :-
अर्थात सृष्टि मे जितने भी तीर्थ पाये जाते है, वे सब वस्तुतः सन्त-महापुरूषो के चरणो में ही स्थित है। श्रद्धा से सन्तो की सेवा करने एवं उनकी चरण-धूलि मस्तक पर लगाने से ही सब तीर्थो का फल उपलब्ध हो जाता है। जैसे कि इस कहानी से स्पष्ट है :-
इस तथ्य से तो सभी परिचित है कि गंगा जी पर प्रति वर्ष मेला लगा करता है और लोगों के दिलो मे यह भावना दृढ़ है कि गंगा जी का स्नान करने से मानव पापों से निवृति पा लेता है। लाखो की संख्या मे लोग मेले में जाकर गंगा जी मे स्नान कर अपने पापों से छुटकारा पाना चाहते है। इन्ही लोगों मे से किसी एक गंगा-भक्त की बात है। उसने ऐसी प्रतिज्ञा की हुई थी कि जब तक मेरा जीवन है तब तक मै प्रति वर्ष श्री गंगा जी का स्नान करूँगा और भोजन भी उनके हाथ से ग्रहण करूँगा, जिन्होंने कि गंगा स्नान किया होगा।
इस प्रकार कई वर्ष बीत चुके थे। एक बार मेला समाप्त होने पर वह गंगा जी का स्नान कर जब घर लौट रहा था तो मार्ग मे रात्रि पड़ने पर वह किसी महात्मा जी की कुटिया पर ठहरा ओर रात को उसने वही विश्राम किया। प्रातः जब महात्मा जी उसे भोजन देने लगे तो उस गंगा-प्रेमी ने मन मे सोचा कि महात्मा जी तो गंगा के समीप ही रहते है। प्रतिदिन स्नान करते ही होगे। इनसे क्या पूछना है ऐसा विचार कर उसने महात्मा जी के हाथो का भोजन पा लिया। भोजनोपरान्त जब जाने लगा तो महात्मा जी से कहने लगा – ‘महात्मा जी! मुझे कुछ दिशा भ्रम हो गया है। कृप्या रास्ता बता दिजिए।’
महात्मा जी ने पूछा – “तुमने किस ओर जाना है ?”
भक्त ने कहा – “महात्मन! आप गंगाजी की ही दिशा बता दीजिये। उसकी विपरीत दिशा से मै आया था और उसी ओर मैने वापस जाना है।”
महात्मा जी आस्चर्यमय मुद्र बनाकर बोले – भाई! गंगा के मार्ग को तो हम जानते नही परन्तु हम तुम्हे चारों दिशांए बता देते है।
महात्मा जी की यह बात सुनकर भक्त आश्चर्यचकित हुआ और मन मे पश्चाताप करने लगा कि आज तो मेरी प्रतिज्ञा ही टूट गई। मैने तो यह विचार किया था कि यह महात्मा जी तो नित्यप्रति गंगा स्नान करते होगे। हाय! मेरे साथ तो बहुत धोखा हुआ है। तब वह पश्चाताप व मन की उधेड़-बुन करता हुआ पूर्व की ओर चल पड़ा। अभी 4-5 कदम ही चल पाया था कि उसे श्याम बर्ण की तीन गौएँ दिखाई दी। उनको देख यह सोचने लगा कि मैने आज तक ऐसी गौएँ कभी नही देखी। वह वही ठिठक कर रह गया और वह तीनो गौएं महात्मा जी की कुटिया के समीप वाले तल्लैया मे प्रवेश कर गई। जब वे पानी मे कुछ देर डुबकियाँ लगा कर बाहर निकली तो उनका रंग दूधवत सफेद हो गया। यह अदभुत कौतुक देखकर वह चकित रह गया कि गौएं श्याम वर्ण से श्ववेत वर्ण की कैसे हो गई? वह अभी उसी स्थान पर खड़ा हुआ था। जब गौएं वापस लौटकर उसके समीप से गुजरने लगीं तो वह आगे बढकर हाथ जोड़ कर पूछने लगा – “हे देवियो! आप कौन है? मै अभी थोड़ी देर पहले आपका रंग श्याम देखा था अब एकाएक श्वेत वर्ण मे आप दिखाई दे रही है – इसका क्या कारण है ?”
तब उनमे से एक गाय बोली – ‘हे भले पुरूष! सुन, हम तोनों नदियाँ है – यह गंगा, वह यमुना और मै सरस्वती हूँ। हमारे मे जब पापी पुरूष आकार स्नान करते है तो हमारा वर्ण श्याम हो जाता है और जब हम यहाँ पूर्ण सन्तो के चरण-सरोवर में आकर स्नान करती है तब उस हमारे मे समाहित पापी जीवो के समस्त अघ नष्ट हो जाते है और हमारा रंग पूर्वतत शुद्ध व उज्जवल हो जाता है।’ स्वयं तीर्थो के मुख से प्रत्यक्ष मे ये बाते सुनकर वह भक्त हैरान हो गया और मन ही मन सोचने लगा कि मै अति मूर्ख हूँ, जो अकारण ही सन्तो पर दोषारोपण किये जा रहा हुँ कि ये सन्त भी कैसे है जो कि श्री गंगा जी मे स्नान भी नही करते परन्तु अब तो आज मैने अपनी आँखो से प्रत्यक्ष उनके महात्मय को देख व सुन लिया है कि –
अर्थात तीर्थ तो स्वयं पूर्ण पुरूषो के चरणो मे आकर स्नान करते है। अतः अब मुझे गंगा जी पर जाने की क्या विशेष आवश्यकता है ? सब तीर्थ तो महात्मा जी के चरणो में है। अस्तु, अब मै आजीवन इनके पावन चरणो मे रह कर दोनो प्रकार के स्नान करूँगा जिससे जन्म-जन्मांतरो के पापो से निवृति पा लूंगा।
यह सोचकर वह प्रेमी वही से महात्मा जी की कुटिया पर उलटे पाँव लौट आया। महात्मा जी की चरण-शरण ग्रहण करके एवं निष्काम सेवा द्वारा अपने जीवन को लाभान्वित करने लगे।
सन्त शरण के गौरव के विषय मे महापुरूषो ने क्या सुन्दर शब्दो मे कहा है –
भाव यह है कि सन्तो के चरणो की तीर्थों से उपमा दी गई है कि वह तीथों से भी अधिक महत्तव रखते है तभी तो उनके पावन चरण-स्पर्श करने के लिए स्वयं बड़े-बड़े तीर्थ भी तरसते है। जैसा की इस दृष्टान्त से हम पढ चुके है।
कि त्रिवेणी स्वयं चलकर सन्तो की निर्मल अघनाशिनी चरण-रज से अपने को पवित्र करने हेतु वहाँ पर आई, जहाँ पर कि पूर्ण महात्मा जी स्नानादि करते है। उस पवित्र चरण-सरोवर मे प्रवेश कर वे अपने पर चढ़े हुए पापो को धोकर पूर्ण रूप से निर्मलता को प्राप्त कर गई।
इसीप्रकार भाग्यशाली पुरूष भी सन्त-महापुरूषो के जो कि स्वयं ब्रह्मलीन अथवा पूर्ण तत्वदर्शी होते है उन महापुरूषो के पावन सत्संग रूपी सरोवर में मज्जन कर समस्त पापो से छुटकारा पा लेते है।